गुरुवार, 22 मार्च 2018

हिंदी व्याकरण


                          हिंदी व्याकरण 


मेरे प्रिय मित्रों  आज  हम आपको हिंदी की व्याकरण बताने आए है। हमें ख़ुशी है की आप हिंदी की व्याकरण जानने की इच्छा  रखते हैं 

व्याकरण में हम निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेंगे :
  •  भाषा
  • व्याकरण

  • वर्णमाला

  • शब्द-विचार

  • वाक्य विचार

  • संज्ञा

  • सर्वनाम

  • क्रिया

  • काल

  • विशेषण

  • अव्यय

  • लिंग

  • उपसर्ग

  • संधि

  • संधि विच्छेद

  • कारक

  • प्रत्यय

  • समास

  • वचन

  • अलंकार

  • छन्द

  • रस

  • मुहवारा

  • लोकोक्तियाँ

  • पल्लवन

  • विलोम

  • अनेकार्थी शब्द

  • एकार्थक शब्द

  • अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

  • पत्र-लेखन

  • विराम चिह्न

  • युग्म शब्द

  • अनुच्छेद-लेखन

  • संक्षेपण

  • पदबंध

  • शब्दों की अशुद्धियाँ

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भाषा(Language)की परिभाषा -

सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।
भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। इसका अर्थ वाणी को व्यक्त करना है। इसके द्वारा मनुष्य के भावो, विचारो और भावनाओ को व्यक्त किया जाता है। वैसे भी भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी भाषावैज्ञानिकों ने इसकी अनेक परिभाषा दी है। किन्तु ये परिभाषा पूर्ण नही है। हर में कुछ न कुछ त्रुटि पायी जाती है।

भाषा के प्रकार

भाषा के तीन रूप होते है-
मौखिक भाषा 
लिखित भाषा 
सांकेतिक भाषा।
मौखिक भाषा :-जिस ध्वनि का उच्चारण करके या बोलकर हम अपनी बात दुसरो को समझाते है, उसे मौखिक भाषा कहते है।
जैस- हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला आदि।
लिखित भाष :- जिन अक्षरों या चिन्हों की सहायता से हम अपने मन के विचारो को लिखकर प्रकट करते है, उसे लिखित भाषा कहते है।
जैसे -देवनागरी लिपि, गुजराती लिपि, गुरुमुखी लिपि आदि।
सांकेतिक भाषा :- जिन संकेतो के द्वारा बच्चे या गूँगे अपनी बात दूसरों को समझाते है, वे सब सांकेतिक भाषा कहलाती है।

भाषा के विविध रूप

हर देश में भाषा के तीन रूप मिलते है-
(1)बोलियाँ (2)परिनिष्ठित भाषा (3)राष्ट्र्भाषा
बोलियाँ :- जिन स्थानीय बोलियों का परयोग साधारण अपने समूह या घरों में करती है, उसे बोली (dialect) कहते है।
किसी भी देश में बोलियों की संख्या अनेक होती है। ये घास-पात की तरह अपने-आप जन्म लेती है और किसी क्षेत्र-विशेष में बोली जाती है। जैसे- भोजपुरी, मगही, अवधी, मराठी तेलगु, इंग्लिश आदि।
परिनिष्ठित भाषा :- यह व्याकरण से नियन्त्रित होती हैं इसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य में होता है। बोली को जब व्याकरण से परिष्कृत किया जाता है, तब वह परिनिष्ठित भाषा बन जाती है। खड़ीबोली कभी बोली थी, आज परिनिष्ठित भाषा बन गयी है, जिसका उपयोग भारत में सभी स्थानों पर होता है। जब भाषा व्यापक शक्ति ग्रहण कर लेती है, तब आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के आधार पर राजभाषा या राष्टभाषा का स्थान पा लेती है। ऐसी भाषा सभी सीमाओं को लाँघकर अधिक व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार-विनिमय का साधन बनकर सारे देश की भावात्मक एकता में सहायक होती है। भारत में पन्द्रह विकसित भाषाएँ है, पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को 'राष्ट्रभाषा' (राजभाषा) का गौरव प्रदान किया है। इस प्रकार, हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा है- रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, जर्मनी की जर्मन, जापान की जापानी आदि।
राष्ट्र्भाषा :- जब कोई भाषा किसी राष्ट्र के अधिकांश प्रदेशों के बहुमत द्वारा बोली व समझी जाती है तो वह राष्टभाषा बन जाती है।
जैसे- हिंदी भारत की राष्टभाषा है।

मातृभाषा

मातृभाषा- जो भाषा बच्चा अपने परिवार या माता से सीखता है, उसे मातृभाषा कहते हैं।
जैसे- कोई परिवार मूल रूप से हिन्दी भाषा बोलता है तो उस परिवार में जन्म लेने वाला बच्चा भी हिन्दी भाषा ही सीखेगा। अतः हिन्दी उस बालक की मातृभाषा होगी।

प्रादेशिक भाषा

प्रादेशिक भाषा- जब कोई भाषा एक प्रदेश में बोली जाती है तो उसे 'प्रादेशिक भाषा' कहते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा- जब कोई भाषा विश्व के दो या दो से अधिक राष्ट्रों द्वारा बोली जाती है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन जाती है। जैसे- अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है।

                                                                

                                          व्याकरण

व्याकरण- व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा हमे किसी भाषा का शुद्ध बोलना, लिखना एवं समझना आता है।

व्याकरण के प्रकार

(1) वर्ण या अक्षर 
(2) शब्द 
(3)वाक्य
(1) वर्ण या अक्षर:-भाषा की उस छोटी ध्वनि (इकाई )को वर्ण कहते है जिसके खंड टुकड़े नही किये सकते है।
जैसे -अ, ब, म, क, ल, प आदि।
(2) शब्द:-वर्णो के उस मेल को शब्द कहते है जिसका कुछ अर्थ होता है।
जैसे- फूल , माकन ,राजा इत्यादि 
(3 )वाक्य :-अनेक शब्दों को मिलाकर वाक्य बनता है। ये शब्द मिलकर किसी अर्थ का ज्ञान कराते है।
जैसे- हम लोग जा रहे है।
सचित रो रहा है। 

हिन्दी व्याकरण की विशेषताएँ

हिन्दी-व्याकरण संस्कृत व्याकरण पर आधृत होते हुए भी अपनी कुछ स्वतंत्र विशेषताएँ रखता है। हिन्दी को संस्कृत का उत्तराधिकार मिला है। इसमें संस्कृत व्याकरण की देन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पं० किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है कि ''हिन्दी ने अपना व्याकरण प्रायः संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही बनाया है- क्रियाप्रवाह एकान्त संस्कृत व्याकरण के आधार पर है, पर कहीं-कहीं मार्गभेद भी है। मार्गभेद वहीं हुआ है, जहाँ हिन्दी ने संस्कृत की अपेक्षा सरलतर मार्ग ग्रहण किया है।''

लिपि

लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं। किसी एक भाषा को उसकी सामान्य लिपि से दूसरी लिपि में लिखना, इस तरह कि वास्तविक अनुवाद न हुआ हो, इसे लिप्यन्तरण कहते हैं।
हिंदी और संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी और उर्दू भाषा की लिपि फारसी है

                                   वर्ण ; वर्णमाला

वर्ण- हैं।
वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे-अ, ई, व, च, क,ख्, इत्यादि
ये सभी वर्ण है, क्योंकि इनके खंड नहीं किये जा सकते। उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं,जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र+आ+म+अ =राम, ग+अ+य+आ =गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते 

वर्णमाला- वर्णों के समूह को वर्णमाला कहते हैं।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है, किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।

हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (1)स्वर (vowel) (2) व्यंजन (Consonant)
(1) स्वर (vowel) :- वे वर्ण जिनका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता के हो सकता है ,स्वर कहलाता है।
इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।
हिंदी वर्णमाला में 16 स्वर है
जैसे -अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

स्वर के भेद

स्वर के दो भेद होते है-
(i) मूल स्वर(ii) संयुक्त स्वर
(i) मूल स्वर:-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ
(ii) संयुक्त स्वर:-ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

मूल स्वर के भेद

मूल स्वर के तीन भेद होते है -
(i) ह्स्व स्वर(ii) दीर्घ स्वर(iii)प्लुत स्वर
(i)ह्स्व स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। ह्स्व स्वर चार होते है -अ आ उ ऋ।
(ii)दीर्घ स्वर :- स्वरों उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
दीर्घ स्वर सात होते है -आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
दीर्घ स्वर दो शब्दों योग से बनते है।
जैसे -आ =(अ +अ ) ई =(इ +इ ) ऊ =(उ +उ ) ए =(अ +इ ) ऐ =(अ +ए ) ओ =(अ +उ ) औ =(अ +ओ )
(iii)प्लुत स्वर :-जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इसका कोई चिह्न नहीं होता। इसके लिए तीन (३) का अंक लगाया जाता है। जैसे- ओउम। हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं।

वर्णों की मात्राएँ

व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें 'मात्राएँ' कहते हैं।
दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी 'मात्रा' कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।
ये मात्राएँ दस है; जैसे- ा े, ै ो ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि। स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।
अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।
निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।
विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।
टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।
(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में-व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है। जैसे- क, ख, ग, च, छ, त, थ, द, भ, म इत्यादि।
'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वरवर्ण स्वतंत्र और व्यंजनवर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजनवर्णो की संख्या ३३ है।

व्यंजनों के प्रकार -

व्यंजनों चार प्रकार के होते है-
(1)स्पर्श व्यंजन
(2)अंतः स्थ व्यंजन 
(3)उष्म व्यंजन 
(4)संयुक्त व्यंजन
(1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह की किसी भाग जैसे -कण्ठ,तालु ,मूर्धा ,दाँत ,अथवा होठ का स्पर्श करती है उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है;
क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।
ये 25 व्यंजन होते है
(1)कवर्ग- क ख ग घ ङ ये कण्ठ का स्पर्श करते है।
(2)चवर्ग- च छ ज झ ञ ये तालु का स्पर्श करते है।
(3)टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्श करते है
(4)तवर्ग- त थ द ध न ये दाँतो का स्पर्श करते है
(5) पवर्ग- प फ ब भ म ये होठों का स्पर्श करते है
(2)अंतः स्थ व्यंजन :- अंतः का अर्थ होता है -भीतर। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रहे उन्हें अंतः स्थ व्यंजन कहते है।
ये व्यंजन चार होते है - य , र, ल, व। इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं।
(3)उष्म व्यंजन :- उष्म का अर्थ होता है -गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे उन्हें उष्म व्यंजनकहते है।
उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं। ये भी चार व्यंजन होते है -श, ष, स, ह।
(4)संयुक्त व्यंजन :- ये दो व्यंजनों से मिलकर बनते है। ये निम्नलिखित तीन होते है।-
क्ष =क +ष +अ
त्र=त +र +अ
ज्ञ=श +र +अ

वर्णों का उच्चारण

कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारणस्थान कहते हैं।
मुख के छह भाग हैं-कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारणस्थान भित्र हैं, इसलिए वर्णों की निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-
कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग।
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श।
मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष।
दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग।
कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए,ऐ।
कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ और औ।
दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।

स्वरवर्णो का उच्चारण

'अ' का उच्चारण- यह कण्ठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं। जैसे- क्+अ=क। जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं।
हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम 'अ' लगे वर्ण का उच्चारण हलन्त-सा होता हैं। जैसे- नमक्, रात्, दिन्, मन्, रूप्, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण संयुक्त हो, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।
इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ऊ के बाद 'य' आए, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।
'ऐ' और 'औ' का उच्चारण-'ऐ' का उच्चारण कण्ठ और तालु से और 'औ' का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं। संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भित्र होता हैं। जहाँ संस्कृत में 'ऐ' का उच्चारण 'अइ' और 'औ' का उच्चारण 'अउ' की तरह होता हैं, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः 'अय' और 'अव' के समान होता हैं। अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भित्र हैं। 

व्यंजनों का उच्चारण

'व' और 'ब' का उच्चारण-'व' का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से 'व' का उच्चारण होता है और 'ब' का उच्चारण दो ओठों के मेल से होता हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा यह होता हैं कि लिखने और बोलने में भद्दी भूलें हो जाया करती हैं। 'वेद' को 'बेद' और 'वायु' को 'बायु' कहना भद्दा लगता हैं। संस्कृत में 'ब' का प्रयोग बहुत कम होता हैं, हिन्दी में बहुत अधिक। यही कारण है कि संस्कृत के तत्सम शब्दों में प्रयुक्त 'व' वर्ण को हिन्दी में 'ब' लिख दिया जाता हैं। बात यह है कि हिन्दीभाषी बोलचाल में भी 'व' और 'ब' का उच्चारण एक ही तरह करते हैं। इसलिए लिखने में भूल हो जाया करती हैं। इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता हैं। इससे अर्थ का अनर्थ भी होता हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
(i) वास- रहने का स्थान, निवास। बास- सुगन्ध, गुजर। (ii) वंशी- मुरली। बंशी- मछली फँसाने का यन्त्र।
(iii) वेग- गति। बेग- थैला (अँगरेजी), कपड़ा (अरबी), तुर्की की एक पदवी।
(iv) वाद- मत। बाद- उपरान्त, पश्रात।
(v) वाह्य- वहन करने (ढोय) योग्य। बाह्य- बाहरी।
सामान्यतः हिन्दी की प्रवृत्ति 'ब' लिखने की ओर हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोशों में एक ही शब्द के दोनों रूप दिये गये हैं। बँगला में तो एक ही 'ब' (व) है, 'व' नहीं। लेकिन, हिन्दी में यह स्थिति नहीं हैं। यहाँ तो 'वहन' और 'बहन' का अन्तर बतलाने के लिए 'व' और 'ब' के अस्तित्व को बनाये रखने की आवश्यकता हैं।
'ड़' और 'ढ़' का उच्चारण-हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में 'ड' और 'ढ' के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। वास्तव में ये वैदिक वर्णों क और क् ह के विकसित रूप हैं। इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिप्प (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़।
श-ष-स का उच्चारण-ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।
'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर 'ष' के उच्चारण में जिह्ना मूर्द्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव 'श' तालव्य वर्ण है और 'ष' मूर्धन्य वर्ण। हिन्दी में अब 'ष' का उच्चारण 'श' के समान होता हैं। 'ष' वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से 'ष' का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है; जैसे- अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।
'श' और 'स' के उच्चारण में भेद स्पष्ट हैं। जहाँ 'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है, वहाँ 'स' के उच्चारण में जिह्ना दाँत को स्पर्श करती है। 'श' वर्ण सामान्यतया संस्कृत, फारसी, अरबी और अँगरेजी के शब्दों में पाया जाता है; जैसे- पशु, अंश, शराब, शीशा, लाश, स्टेशन, कमीशन इत्यादि। हिन्दी की बोलियों में श, ष का स्थान 'स' ने ले लिया है। 'श' और 'स' के अशुद्ध उच्चारण से गलत शब्द बन जाते है और उनका अर्थ ही बदल जाता है। अर्थ और उच्चारण के अन्तर को दिखलानेवाले कुछ उदाहरण इस प्रकार है-
अंश (भाग)- अंस (कन्धा) । शकल (खण्ड)- सकल (सारा) । शर (बाण)- सर (तालाब) । शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित) । श्र्व (कुत्ता)- स्व (अपना) । शान्त (धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।
'ड' और 'ढ' का उच्चारण-इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।
जैसे- डाका, डमरू, ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में।
गड्ढा, खड्ढा- द्वित्व में।
डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्रात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।

                                  शब्द-विचार


शब्द(Etymology)विचार की परिभाषा

दो या दो से अधिक वर्णो से बने ऐसे समूह को 'शब्द' कहते है, जिसका कोई न कोई अर्थ अवश्य हो।
दूसरे शब्दों में- ध्वनियों के मेल से बने सार्थक वर्णसमुदाय को 'शब्द' कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- वर्णों या ध्वनियों के सार्थक मेल को 'शब्द' कहते है।
जैसे- सन्तरा, कबूतर, टेलीफोन, आ, गाय, घर, हिमालय, कमल, रोटी, आदि।
इन शब्दों की रचना दो या दो से अधिक वर्णों के मेल से हुई है। वर्णों के ये मेल सार्थक है, जिनसे किसी अर्थ का बोध होता है। 'घर' में दो वर्णों का मेल है, जिसका अर्थ है मकान, जिसमें लोग रहते हैं। हर हालत में शब्द सार्थक होना चाहिए। व्याकरण में निरर्थक शब्दों के लिए स्थान नहीं है।
शब्द और पद- यहाँ शब्द और पद का अंतर समझ लेना चाहिए। ध्वनियों के मेल से शब्द बनता है। जैसे- प+आ+न+ई- पानी। यही शब्द जब वाक्य में अर्थवाचक बनकर आये, तो वह पद कहलाता है।
जैसे- पुस्तक लाओ। इस वाक्य में दो पद है- एक नामपद 'पुस्तक' है और दूसरा क्रियापद 'लाओ' है।
शब्दों की रचना (i) ध्वनि और (ii) अर्थ के मेल से होती है। एक या अधिक वर्णों से बनी स्वतन्त्र सार्थक ध्वनि को शब्द कहते है;
जैसे- मैं, धीरे, परन्तु, लड़की इत्यादि। अतः शब्द मूलतः ध्वन्यात्मक होंगे या वर्णात्मक। किन्तु, व्याकरण में ध्वन्यात्मक शब्दों की अपेक्षा वर्णात्मक शब्दों का अधिक महत्त्व है। वर्णात्मक शब्दों में भी उन्हीं शब्दों का महत्त्व है।

शब्द के भेद -

अर्थ, प्रयोग, उत्पत्ति, और व्युत्पत्ति की दृष्टि से शब्द के कई भेद है। इनका वर्णन निम्न प्रकार है-

(1) अर्थ की दृष्टि से शब्द-भेद

(i)साथर्क शब्द (ii) निरर्थक शब्द
(i)सार्थक शब्द:-जिस वर्ण समूह का स्पष्ट रूप से कोई अर्थ निकले, उसे 'सार्थक शब्द' कहते है।
जैसे-कमल, खटमल, रोटी, सेव आदि।
(ii)निरर्थक :-जिस वर्ण समूह का कोई अर्थ न निकले, उसे निरर्थक शब्द कहते है।
जैसे- राटी, विठा, चीं, वाना, वोती आदि।
सार्थक शब्दों के अर्थ होते है और निरर्थक शब्दों के अर्थ नहीं होते। जैसे- 'पानी' सार्थक शब्द है और 'नीपा' निरर्थक शब्द, क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं।

(2) प्रयोग की दृष्टि से शब्द-भेद

(i)विकारी शब्द (ii)अविकारी शब्द
(i)विकारी शब्द :- जिन शब्दों के रूप में लिंग, वचन, कारक के अनुसार परिवर्तन का विकार आता है, उन्हें विकारी शब्द कहते है।
जैसे- लिंग- लड़का पढता है।....... लड़की पढ़ती है।
वचन- लड़का पढता है।........लड़के पढ़ते है।
कारक- लड़का पढता है।........ लड़के को पढ़ने दो।
विकारी शब्द चार प्रकार के होते है -
(i) संज्ञा (noun) (ii) सर्वनाम (pronoun) (iii) विशेषण (adjective) (iv) क्रिया (verb)
(ii)अविकारी शब्द :-जिन शब्दों रूप में कोई परिवर्तन नही होता, उन्हें अविकारी शब्द कहते है। जैसे- परन्तु, तथा, यदि, धीरे-धीरे, अधिक आदि।
अविकारी शब्द भी चार प्रकार के होते है - (i )क्रिया-विशेषण (Adverb) (ii )सम्बन्ध बोधक (Preposition) (iii )समुच्चय बोधक(Conjunction) (iv )विस्मयादि बोधक(Interjection)

(3) उत्पति की दृष्टि से शब्द-भेद

(i)तत्सम (ii )तदभव (iii )देशज एवं (iv)विदेशी शब्द
(i) तत्सम :-हिंदी में संस्कृत के मूल शब्दों को 'तत्सम' कहते है।
दूसरे शब्दों में- संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है।
ये शब्द आज भी ज्यों-के-त्यों व्यवहार में आते हैं।
जैसे- कवि, माता, विद्या, नदी, फल, पुष्प, पुस्तक, पृथ्वी आदि।
यहाँ संस्कृत के उन तत्स्मो की सूची है, जो संस्कृत से होते हुए हिंदी में आये है-
तत्समहिंदीतत्समहिंदी
आम्रआमगोमल ,गोमयगोबर
उष्ट्रऊॅंटघोटकघोड़ा
चंचुचोंचपर्यकपलंग
त्वरिततुरंतभक्त्तभात
शलाकासलाईहरिद्राहल्दी, हरदी
चतुष्पदिकाचौकीसपत्रीसौत
उद्वर्तनउबटनसूचिसुई
खर्परखपरा, खप्परसक्तुसत्तू
तिक्ततीताक्षीरखीर
(ii) तदभव :- ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तदभव' कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- संस्कृत भाषा के ऐसे शब्द, जो बिगड़कर अपने रूप को बदलकर हिन्दी में मिल गये है, 'तदभव' शब्द कहलाते है।
जैसे- अग्नि(तत्सम) का आग (तद्धव), कुब्ज (तत्सम) का कुबड़ा (तद्धव), कर्पूर (तत्सम) का कपूर (तद्धव),दुग्ध (तत्सम) का दूध, हस्त (तत्सम) का हाथ (तद्धव) आदि।
तत्+भव का अर्थ है- उससे (संस्कृत से) उत्पत्र। ये शब्द संस्कृत से सीधे न आकर पालि, प्राकृत और अप्रभ्रंश से होते हुए हिंदी में आये है। इसके लिए इन्हें एक लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी है। सभी तदभव शब्द संस्कृत से आये है, परन्तु कुछ शब्द देश-काल के प्रभाव से ऐसे विकृत हो गये हैं कि उनके मूलरूप का पता नहीं चलता।
तदभव के प्रकार-
तदभव शब्द दो प्रकार के है-(i)संस्कृत से आनेवाले और (2)सीधे प्राकृत से आनेवाले।
हिंदी भाषा में प्रयुक्त होनेवाले बहुसंख्य शब्द ऐसे तदभव है, जो संस्कृत-प्राकृत से होते हुए हिंदी में आये है।
निम्नलिखित उदाहरणों से तदभव शब्दों के रूप स्पस्ट हो जायेंगे -

संस्कृतप्राकृततदभव हिंदी
अग्निअग्गिआग
मयामईमैं
वत्सवच्छबच्चा, बाछा
चत्वारिचतारीचार
पुष्पपुप्फफूल
मयूरमऊरमोर
चतुर्थचडत्थचौथा
प्रियप्रियपिय, पिया
वचनवअणबैन
कृतःकओकिया
मध्यमज्झमें
नवनअनौ

(iii) देशज :-देश की बोलचाल में पाये जानेवाले शब्द 'देशज' कहलाते हैं।
दूसरे शब्दों में- जो शब्द देश की विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में अपना लिये गये है, उन्हें देशज शब्द कहते है।
जैसे- चिड़िया, कटरा, कटोरा, खिरकी, जूता, खिचड़ी, पगड़ी, लोटा, डिबिया, तेंदुआ, कटरा, अण्टा, ठेठ, ठुमरी, खखरा, चसक, फुनगी, डोंगा आदि।
देशज वे शब्द है, जिनकी व्युत्पति का पता नही चलता। ये अपने ही देश में बोलचाल से बने है,इसलिए इन्हे देशज कहते है।
हेमचन्द्र ने उन शब्दों को 'देशी' कहा है, जिनकी व्युत्पत्ति किसी संस्कृत धातु या व्याकरण के नियमों से नहीं हुई। विदेशी विद्वान जॉन बीम्स ने देशज शब्दों को मुख्यरूप से अनार्यस्त्रोत से सम्बद्ध माना हैं।
(iv) विदेशी :-विदेशी भाषाओं से हिंदी भाषा में आये शब्दों को 'विदेशी' शब्द 'कहते है।
अथवा- जो शब्द विदेशी भाषाओं से हिन्दी में आ गये है, उन्हें विदेशी शब्द कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन शब्दों का जन्म विदेशों में हुआ है, उन्हें 'विदेशज' कहते हैं।
अँगरेजी- हॉस्पिटल, डॉक्टर, बुक, रेडियो, टिकट, टेबुल इत्यादि।
फारसी- आराम, अफसोस, किनारा, गिरफ्तार, नमक, दुकान, अनार, चश्मा, गिरह इत्यादि।
अरबी- असर, किस्मत, खयाल, दुकान, औरत, मालिक, गरीब, मदद इत्यादि।
तुर्की से- तोप, दरोगा, चाकू।
चीनी से- चाय, पटाखा,आदि।
इनमें फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी, पुर्तगाली और फ्रांसीसी भाषाएँ मुख्य है। अरबी, फारसी और तुर्की के शब्दों को हिन्दी ने अपने उच्चारण के अनुरूप या अपभ्रंश रूप में ढाल लिया है। हिन्दी में उनके कुछ हेर-फेर इस प्रकार हुए हैं-
(1) क, ख, ग, फ जैसे नुक्तेदार उच्चारण और लिखावट को हिन्दी में साधारणतया बेनुक्तेदार उच्चरित किया और लिखा जाता है।
जैसे- कीमत (अरबी)- कीमत (हिन्दी), खूब (फारसी)=खूब (हिन्दी), आगा (तुर्की)=आगा (हिन्दी), फैसला (अरबी)=फैसला (हिन्दी)।
(2) शब्दों के अन्तिम विसर्ग की जगह हिन्दी में आकार की मात्रा लगाकर लिखा या बोला जाता है।
जैसे- आईन: और कमीन: (फारसी)=आईना और कमीना (हिन्दी), हैज: (अरबी)=हैजा (हिन्दी), चम्च: (तुर्की)=चमचा (हिन्दी)।
(3) शब्दों के अन्तिम हकार की जगह हिन्दी में आकार की मात्रा कर दी जाती है।
जैसे- अल्लाह (अरब)=अल्ला (हिन्दी)।
(4) शब्दों के अन्तिम आकार की मात्रा को हिन्दी में हकार कर दिया जाता है।
जैसे- परवा (फारसी)=परवाह (हिन्दी)।
(5) शब्दों के अन्तिम अनुनासिक आकार को 'आन' कर दिया जाता है।
जैसे- दुकाँ (फारसी)=दुकान (हिन्दी), ईमाँ (अरबी) =ईमान (हिन्दी)।
(6) बीच के 'इ' को 'य' कर दिया जाता है।
जैसे- काइद: (अरबी)=कायदा (हिन्दी)।
(7) बीच के आधे अक्षर को लुप्त कर दिया जाता है।
जैसे- नश्श: (अरबी)=नशा (हिन्दी)।
(8) बीच के आधे अक्षर को पूरा कर दिया जाता है।
जैसे- अफ्सोस, गर्म, किश्मिश, बेर्हम, (फारसी)=अफसोस, गरम, जहर, किशमिश, बेरहम (हिन्दी)। तर्फ, कस्त्रत (अरबी)= तरफ, नहर, कसरत (हिन्दी) । चमच:, तग्गा (तुर्की)=चमचा, तमगा (हिन्दी)।
(9) बीच की मात्रा लुप्त कर दी जाती है।
जैसे- आबोदन: (फारसी)=आबदाना (हिन्दी), जवाहिर, मौसिम, वापिस (अरबी)=जवाहर, मौसम, वापस (हिन्दी), चुगुल (तुर्की)=चुगल (हिन्दी)।
(10) बीच में कोई ह्स्व मात्रा (खासकर 'इ' की मात्रा) दे दी जाती है।
जैसे- आतशबाजी (फारसी)=आतिशबाजी (हिन्दी)। दुन्या, तक्य: (अरबी)=दुनिया, तकिया (हिन्दी)।
(11) बीच की ह्स्व मात्रा को दीर्घ में, दीर्घ मात्रा को ह्स्व में या गुण में, गुण मात्रा को ह्स्व में और ह्स्व मात्रा को गुण में बदल देने की परम्परा है।
जैसे- खुराक (फारसी)=खूराक (हिन्दी) (ह्स्व के स्थान में दीर्घ), आईन: (फारसी)=आइना (हिन्दी) (दीर्घ के स्थान में ह्स्व): उम्मीद (फारसी)=उम्मेद (हिन्दी) (दीर्घ 'ई' के स्थान में गुण 'ए'); देहात (फारसी)=दिहात (हिन्दी) (गुण 'ए' के स्थान में 'इ'); मुगल (तुर्की)=मोगल (हिन्दी) ('उ' के स्थान में गुण 'ओ')।
(12) अक्षर में सवर्गी परिवर्तन भी कर दिया जाता है।
जैसे- बालाई (फारसी)=मलाई (हिन्दी) ('ब' के स्थान में उसी वर्ग का वर्ण 'म')।
हिन्दी के उच्चारण और लेखन के अनुसार हिन्दी-भाषा में घुले-मिले कुछ विदेशज शब्द आगे दिये जाते है।

(अ) फारसी शब्द

अफसोस, आबदार, आबरू, आतिशबाजी, अदा, आराम, आमदनी, आवारा, आफत, आवाज, आइना, उम्मीद, कबूतर, कमीना, कुश्ती, कुश्ता, किशमिश, कमरबन्द, किनारा, कूचा, खाल, खुद, खामोश, खरगोश, खुश, खुराक, खूब, गर्द, गज, गुम, गल्ला, गवाह, गिरफ्तार, गरम, गिरह, गुलूबन्द, गुलाब, गुल, गोश्त, चाबुक, चादर, चिराग, चश्मा, चरखा, चूँकि, चेहरा, चाशनी, जंग, जहर, जीन, जोर, जबर, जिन्दगी, जादू, जागीर, जान, जुरमाना, जिगर, जोश, तरकश, तमाशा, तेज, तीर, ताक, तबाह, तनख्वाह, ताजा, दीवार, देहात, दस्तूर, दुकान, दरबार, दंगल, दिलेर, दिल, दवा, नामर्द, नाव, नापसन्द, पलंग, पैदावार, पलक, पुल, पारा, पेशा, पैमाना, बेवा, बहरा, बेहूदा, बीमार, बेरहम, मादा, माशा, मलाई, मुर्दा, मजा, मुफ्त, मोर्चा, मीना, मुर्गा, मरहम, याद, यार, रंग, रोगन, राह, लश्कर, लगाम, लेकिन, वर्ना, वापिस, शादी, शोर, सितारा, सितार, सरासर, सुर्ख, सरदार, सरकार, सूद, सौदागर, हफ्ता, हजार इत्यादि।

(आ) अरबी शब्द

अदा, अजब, अमीर, अजीब, अजायब, अदावत, अक्ल, असर, अहमक, अल्ला, आसार, आखिर, आदमी, आदत, इनाम, इजलास, इज्जत, इमारत, इस्तीफा, इलाज, ईमान, उम्र, एहसान, औरत, औसत, औलाद, कसूर, कदम, कब्र, कसर, कमाल, कर्ज, क़िस्त, किस्मत, किस्सा, किला, कसम, कीमत, कसरत, कुर्सी, किताब, कायदा, कातिल, खबर, खत्म, खत, खिदमत, खराब, खयाल, गरीब, गैर, जिस्म, जलसा, जनाब, जवाब, जहाज, जालिम, जिक्र, तमाम, तकदीर, तारीफ, तकिया, तमाशा, तरफ, तै, तादाद, तरक्की, तजुरबा, दाखिल, दिमाग, दवा, दाबा, दावत, दफ्तर, दगा, दुआ, दफा, दल्लाल, दुकान, दिक, दुनिया, दौलत, दान, दीन, नतीजा, नशा, नाल, नकद, नकल, नहर, फकीर, फायदा, फैसला, बाज, बहस, बाकी, मुहावरा, मदद, मरजी, माल, मिसाल, मजबूर, मालूम, मामूली, मुकदमा, मुल्क, मल्लाह, मौसम, मौका, मौलवी, मुसाफिर, मशहूर, मजमून, मतलब, मानी, मान, राय, लिहाज, लफ्ज, लहजा, लिफाफा, लायक, वारिस, वहम, वकील, शराब, हिम्मत, हैजा, हिसाब, हरामी, हद, हज्जाम, हक, हुक्म, हाजिर, हाल, हाशिया, हाकिम, हमला, हवालात, हौसला इत्यादि।

(इ) तुर्की शब्द


आगा, आका, उजबक, उर्दू, कालीन, काबू, कैंची, कुली, कुर्की, चिक, चेचक, चमचा, चुगुल, चकमक, जाजिम, तमगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर, मुगल, लफंगा, लाश, सौगात, सुराग इत्यादि।

(ई) अँगरेजी शब्द

(अँगरेजी) तत्समतद्भव(अँगरेजी) तत्समतद्भव
ऑफीसरअफसरथियेटरथेटर, ठेठर
एंजिनइंजनटरपेण्टाइनतारपीन
डॉक्टरडाक्टरमाइलमील
लैनटर्नलालटेनबॉटलबोतल
स्लेटसिलेटकैप्टेनकप्तान
हास्पिटलअस्पतालटिकटटिकस
इनके अतिरिक्त, हिन्दी में अँगरेजी के कुछ तत्सम शब्द ज्यों-के-त्यों प्रयुक्त होते है। इनके उच्चारण में प्रायः कोई भेद नहीं रह गया है। जैसे- अपील, आर्डर, इंच, इण्टर, इयरिंग, एजेन्सी, कम्पनी, कमीशन, कमिश्रर, कैम्प, क्लास, क्वार्टर, क्रिकेट, काउन्सिल, गार्ड, गजट, जेल, चेयरमैन, ट्यूशन, डायरी, डिप्टी, डिस्ट्रिक्ट, बोर्ड, ड्राइवर, पेन्सिल, फाउण्टेन, पेन, नम्बर, नोटिस, नर्स, थर्मामीटर, दिसम्बर, पार्टी, प्लेट, पार्सल, पेट्रोल, पाउडर, प्रेस, फ्रेम, मीटिंग, कोर्ट, होल्डर, कॉलर इत्यादि।

(उ) पुर्तगाली शब्द

हिन्दीपुर्तगाली
अलकतराAlcatrao
अनत्रासAnnanas
आलपीनAlfinete
आलमारीAlmario
बाल्टीBalde
किरानीCarrane
चाबीChave
फीताFita
तम्बाकूTabacco
इसी तरह, आया, इस्पात, इस्तिरी, कमीज, कनस्टर, कमरा, काजू, क्रिस्तान, गमला, गोदाम, गोभी, तौलिया, नीलाम, परात, पादरी, पिस्तौल, फर्मा, मेज, साया, सागू आदि पुर्तगाली तत्सम के तद्भव रूप भी हिन्दी में प्रयुक्त होते है।
ऊपर जिन शब्दों की सूची दी गयी है उनसे यह स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा में विदेशी शब्दों की कमी नहीं है। ये शब्द हमारी भाषा में दूध-पानी की तरह मिले है। निस्सन्देह, इनसे हमारी भाषा समृद्ध हुई है।

रचना अथवा बनावट के अनुसार शब्दों का वर्गीकरण

शब्दों अथवा वर्णों के मेल से नये शब्द बनाने की प्रकिया को 'रचना या बनावट' कहते है।
कई वर्णों को मिलाने से शब्द बनता है और शब्द के खण्ड को 'शब्दांश' कहते है। जैसे- 'राम में शब्द के दो खण्ड है- 'रा' और 'म'। इन अलग-अलग शब्दांशों का कोई अर्थ नहीं है। इसके विपरीत, कुछ ऐसे भी शब्द है, जिनके दोनों खण्ड सार्थक होते है। जैसे- विद्यालय। इस शब्द के दो अंश है- 'विद्या' और 'आलय'। दोनों के अलग-अलग अर्थ है।

(4 )व्युत्पत्ति या रचना की दृष्टि से शब्द भेद

(i)रूढ़ (ii )यौगिक और (iii)योगरूढ़।
(i)रूढ़ शब्द :- जो शब्द हमेशा किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हो तथा जिनके खण्डों का कोई अर्थ न निकले, उन्हें 'रूढ़' कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन शब्दों के खण्ड सार्थक न हों, उन्हें 'रूढ़' कहते है।
यहाँ प्रत्येक शब्द के खण्ड- जैसे, 'नाक' शब्द का खंड करने पर 'ना' और 'क', दोनों का कोई अर्थ नहीं है।
उसी तरह 'कान' शब्द का खंड करने पर 'का' और 'न', दोनों का कोई अर्थ नहीं है।
(ii)यौगिक शब्द :-जो शब्द अन्य शब्दों के योग से बने हो तथा जिनके प्रत्येक खण्ड का कोई अर्थ हो, उन्हें यौगिक शब्द कहते है।
दूसरे शब्दों में- ऐसे शब्द, जो दो शब्दों के मेल से बनते है और जिनके खण्ड सार्थक होते है, यौगिक कहलाते है।
दो या दो से अधिक रूढ़ शब्दों के योग से यौगिक शब्द बनते है; जैसे- आग-बबूला, पीला-पन, दूध-वाला, घुड़-सवार, डाक +घर, विद्या +आलय
यहाँ प्रत्येक शब्द के दो खण्ड है और दोनों खण्ड सार्थक है।
(iii)योगरूढ़ शब्द :- जो शब्द अन्य शब्दों के योग से बनते हो, परन्तु एक विशेष अर्थ के लिए प्रसिद्ध होते है, उन्हें योगरूढ़ शब्द कहते है।
अथवा- ऐसे यौगिक शब्द, जो साधारण अर्थ को छोड़ विशेष अर्थ ग्रहण करे, 'योगरूढ़' कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- ऐसे शब्द, जो यौगिक तो होते है, पर अर्थ के विचार से अपने सामान्य अर्थ को छोड़ किसी परम्परा से विशेष अर्थ के परिचायक है, 'योगरूढ़' कहलाते है।
मतलब यह कि यौगिक शब्द जब अपने सामान्य अर्थ को छोड़ विशेष अर्थ बताने लगें, तब वे 'योगरूढ़' कहलाते है;
जैसे- लम्बोदर, पंकज, दशानन, जलज इत्यादि ।
लम्बोदर =लम्ब +उदर बड़े पेट वाला )=गणेश जी
दशानन =दश +आनन (दस मुखों वाला _रावण)
'पंक +ज' अर्थ है कीचड़ से (में) उत्पत्र; पर इससे केवल 'कमल' का अर्थ लिया जायेगा, अतः 'पंकज 'योगरूढ़ है।


                                 वाक्य विचार


वाक्य विचार(Syntax) की परिभाषा


वह शब्द समूह जिससे पूरी बात समझ में आ जाये, 'वाक्य' कहलाता हैै।
दूसरे शब्दों में- विचार को पूर्णता से प्रकट करनेवाली एक क्रिया से युक्त पद-समूह को 'वाक्य' कहते हैं।
सरल शब्दों में- सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह जिससे अपेक्षित अर्थ प्रकट हो, वाक्य कहलाता है।
जैसे- विजय खेल रहा है, बालिका नाच रही हैैै।

वाक्य के भाग


वाक्य के दो भेद होते है-
(i)उद्देश्य (Subject) 
(ii)विद्येय (Predicate)

(i)उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिसके बारे में कुछ बताया जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं।
जैसे- पूनम किताब पढ़ती है। सचिन दौड़ता है।
इस वाक्य में पूनम और सचिन के विषय में बताया गया है। अतः ये उद्देश्य है। इसके अंतर्गत कर्ता और कर्ता का विस्तार आता है जैसे- 'परिश्रम करने वाला व्यक्ति' सदा सफल होता है। इस वाक्य में कर्ता (व्यक्ति) का विस्तार 'परिश्रम करने वाला' है।

उद्देश्य के भाग-
उद्देश्य के दो भाग होते है-
(i) कर्ता 
(ii) कर्ता का विशेषण या कर्ता से संबंधित शब्द।
(ii)विद्येय (Predicate):- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, उसे विद्येय कहते है।
जैसे- पूनम किताब पढ़ती है।
इस वाक्य में 'किताब पढ़ती' है विधेय है क्योंकि पूनम (उद्देश्य )के विषय में कहा गया है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य के कर्ता (उद्देश्य) को अलग करने के बाद वाक्य में जो कुछ भी शेष रह जाता है, वह विधेय कहलाता है।
इसके अंतर्गत विधेय का विस्तार आता है। जैसे- लंबे-लंबे बालों वाली लड़की 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर गई' ।
इस वाक्य में विधेय (गई) का विस्तार 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर' है।
विशेष-आज्ञासूचक वाक्यों में विद्येय तो होता है किन्तु उद्देश्य छिपा होता है।
जैसे- वहाँ जाओ। खड़े हो जाओ।
इन दोनों वाक्यों में जिसके लिए आज्ञा दी गयी है वह उद्देश्य अर्थात 'वहाँ न जाने वाला '(तुम) और 'खड़े हो जाओ' (तुम या आप) अर्थात उद्देश्य दिखाई नही पड़ता वरन छिपा हुआ है।
विधेय के भाग-
विधेय के छः भाग होते है-
(i) क्रिया 
(ii) क्रिया के विशेषण 
(iii) कर्म 
(iv) कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द 
(v) पूरक 
(vi)पूरक के विशेषण।
नीचे की तालिका से उद्देश्य तथा विधेय सरलता से समझा जा सकता है-
वाक्यउद्देश्यविधेय
गाय घास खाती हैगायघास खाती है।
सफेद गाय हरी घास खाती है।सफेद गायहरी घास खाती है।
सफेद -कर्ता विशेषण
गाय -कर्ता[उद्देश्य]
हरी - विशेषण कर्म
घास -कर्म [विधेय]
खाती है- क्रिया[विधेय]

वाक्य के भेद

वाक्य के भेद- रचना के आधार पर

रचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते है-
(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य (Simple Sentence)
(ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence)
(iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)
(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य:-जिन वाक्य में एक ही क्रिया होती है, और एक कर्ता होता है, वे साधारण वाक्य कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जिन वाक्यों में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, उन्हें साधारण वाक्य या सरल वाक्य कहते हैं।
इसमें एक 'उद्देश्य' और एक 'विधेय' रहते हैं। जैसे- 'बिजली चमकती है', 'पानी बरसा' ।
इन वाक्यों में एक-एक उद्देश्य, अर्थात कर्ता और विधेय, अर्थात क्रिया है। अतः, ये साधारण या सरल वाक्य हैं।
(ii)मिश्रित वाक्य:-जिस वाक्य में एक से अधिक वाक्य मिले हों किन्तु एक प्रधान उपवाक्य तथा शेष आश्रित उपवाक्य हों, मिश्रित वाक्य कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक या अधिक समापिका क्रियाएँ हों, उसे 'मिश्रित वाक्य' कहते हैं।
जैसे- 'वह कौन-सा मनुष्य है, जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हों'।
दूसरे शब्दों मेें- जिन वाक्यों में एक प्रधान (मुख्य) उपवाक्य हो और अन्य आश्रित (गौण) उपवाक्य हों तथा जो आपस में 'कि'; 'जो'; 'क्योंकि'; 'जितना'; 'उतना'; 'जैसा'; 'वैसा'; 'जब'; 'तब'; 'जहाँ'; 'वहाँ'; 'जिधर'; 'उधर'; 'अगर/यदि'; 'तो'; 'यद्यपि'; 'तथापि'; आदि से मिश्रित (मिले-जुले) हों उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।
इनमे एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती है। जैसे- मैं जनता हूँ कि तुम्हारे अक्षर अच्छे नहीं बनते। जो लड़का कमरे में बैठा है वह मेरा भाई है। यदि परिश्रम करोगे तो उत्तीर्ण हो जाओगे।
'मिश्र वाक्य' के 'मुख्य उद्देश्य' और 'मुख्य विधेय' से जो वाक्य बनता है, उसे 'मुख्य उपवाक्य' और दूसरे वाक्यों को आश्रित उपवाक्य' कहते हैं। पहले को 'मुख्य वाक्य' और दूसरे को 'सहायक वाक्य' भी कहते हैं। सहायक वाक्य अपने में पूर्ण या सार्थक नहीं होते, पर मुख्य वाक्य के साथ आने पर उनका अर्थ निकलता हैं। ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उसमें 'वह कौन-सा मनुष्य है' मुख्य वाक्य है और शेष 'सहायक वाक्य'; क्योंकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है।
(iii)संयुक्त वाक्य :-जिस वाक्य में दो या दो से अधिक उपवाक्य मिले हों, परन्तु सभी वाक्य प्रधान हो तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का मेल संयोजक अवयवों द्वारा होता है, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं।
संयुक्त वाक्य उस वाक्य-समूह को कहते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक सरल वाक्य अथवा मिश्र वाक्य अव्ययों द्वारा संयुक्त हों। इस प्रकार के वाक्य लम्बे और आपस में उलझे होते हैं। जैसे- 'मैं रोटी खाकर लेटा कि पेट में दर्द होने लगा, और दर्द इतना बढ़ा कि तुरन्त डॉक्टर को बुलाना पड़ा।' इस लम्बे वाक्य में संयोजक 'और' है, जिसके द्वारा दो मिश्र वाक्यों को मिलाकर संयुक्त वाक्य बनाया गया।
इसी प्रकार 'मैं आया और वह गया' इस वाक्य में दो सरल वाक्यों को जोड़नेवाला संयोजक 'और' है। यहाँ यह याद रखने की बात है कि संयुक्त वाक्यों में प्रत्येक वाक्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है, वह एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होता, केवल संयोजक अव्यय उन स्वतन्त्र वाक्यों को मिलाते हैं। इन मुख्य और स्वतन्त्र वाक्यों को व्याकरण में 'समानाधिकरण उपवाक्य भी कहते हैं।
दूसरे शब्दो में- जिन वाक्यों में दो या दो से अधिक सरल वाक्य योजकों (और, एवं, तथा, या, अथवा, इसलिए, अतः, फिर भी, तो, नहीं तो, किन्तु, परन्तु, लेकिन, पर आदि) से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है।
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया। प्रिय बोलो पर असत्य नहीं। उसने बहुत परिश्रम किया किन्तु सफलता नहीं मिली।

वाक्य के भेद- अर्थ के आधार पर

अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते है-
(i) सरल वाक्य (Affirmative Sentence)
(ii) निषेधात्मक वाक्य (Negative Semtence)
(iii) प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)
(iv)आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)
(v)संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)
(vi)विस्मयादिबोधक वाक्य (Exclamatory Sentence) 
(vii) विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)
(viii) इच्छावाचक वाक्य (IIIative Sentence)
(i)सरल वाक्य:-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है।
जैसे- राम ने बाली को मारा। राधा खाना बना रही है।
(ii)निषेधात्मक वाक्य:-जिन वाक्यों में किसी काम के न होने या न करने का बोध हो उन्हें निषेधात्मक वाक्य कहते है।
जैसे- आज वर्षा नही होगी। मैं आज घर जाऊॅंगा।
(iii)प्रश्नवाचक वाक्य:-वे वाक्य जिनमें प्रश्न पूछने का भाव प्रकट हो, प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते है।
जैसे- राम ने रावण को क्यों मारा? तुम कहाँ रहते हो ?
(iv) आज्ञावाचक वाक्य :-जिन वाक्यों से आज्ञा प्रार्थना, उपदेश आदि का ज्ञान होता है, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते है।
जैसे- वर्षा होने पर ही फसल होगी। परिश्रम करोगे तो फल मिलेगा ही। बड़ों का सम्मान करो।
(v) संकेतवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से शर्त्त (संकेत) का बोध होता है यानी एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया पर निर्भर होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते है।
जैसे- यदि परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होंगे। पिताजी अभी आते तो अच्छा होता। अगर वर्षा होगी तो फसल भी होगी।
(vi)विस्मयादिबोधक वाक्य:-जिन वाक्यों में आश्चर्य, शोक, घृणा आदि का भाव ज्ञात हो उन्हें विस्मयादिबोधक वाक्य कहते है।
जैसे- वाह !तुम आ गये। हाय !मैं लूट गया।
(vii) विधानवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने की सूचना मिले, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते है।
जैसे- मैंने दूध पिया। वर्षा हो रही है। राम पढ़ रहा है।
(viii) इच्छावाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से इच्छा, आशीष एवं शुभकामना आदि का ज्ञान होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्यकहते है।
जैसे- तुम्हारा कल्याण हो। आज तो मैं केवल फल खाऊँगा। भगवान तुम्हें लंबी उमर दे।

वाक्य के अनिवार्य तत्व

वाक्य में निम्नलिखित छ तत्व अनिवार्य है-
(1) सार्थकता
(2) योग्यता 
(3) आकांक्षा
(4) निकटता 
(5) पदक्रम 
(6) अन्वय
(1) सार्थकता- वाक्य का कुछ न कुछ अर्थ अवश्य होता है। अतः इसमें सार्थक शब्दों का ही प्रयोग होता है।
(2) योग्यता- वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में प्रसंग के अनुसार अपेक्षित अर्थ प्रकट करने की योग्यता होती है।
जैसे- चाय, खाई यह वाक्य नहीं है क्योंकि चाय खाई नहीं जाती बल्कि पी जाती है।
(3) आकांक्षा- आकांक्षा का अर्थ है 'इच्छा', वाक्य अपने आप में पूरा होना चाहिए। उसमें किसी ऐसे शब्द की कमी नहीं होनी चाहिए जिसके कारण अर्थ की अभिव्यक्ति में अधूरापन लगे। जैसे- पत्र लिखता है, इस वाक्य में क्रिया के कर्ता को जानने की इच्छा होगी। अतः पूर्ण वाक्य इस प्रकार होगा- राम पत्र लिखता है।
(4) निकटता- बोलते तथा लिखते समय वाक्य के शब्दों में परस्पर निकटता का होना बहुत आवश्यक है, रूक-रूक कर बोले या लिखे गए शब्द वाक्य नहीं बनाते। अतः वाक्य के पद निरंतर प्रवाह में पास-पास बोले या लिखे जाने चाहिए।
(5) पदक्रम- वाक्य में पदों का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। 'सुहावनी है रात होती चाँदनी' इसमें पदों का क्रम व्यवस्थित न होने से इसे वाक्य नहीं मानेंगे। इसे इस प्रकार होना चाहिए- 'चाँदनी रात सुहावनी होती है'।
(6) अन्वय- अन्वय का अर्थ है- मेल। वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, कारक आदि का क्रिया के साथ ठीक-ठीक मेल होना चाहिए; जैसे- 'बालक और बालिकाएँ गई', इसमें कर्ता क्रिया अन्वय ठीक नहीं है। अतः शुद्ध वाक्य होगा 'बालक और बालिकाएँ गए'।

वाक्य-विग्रह (Analysis)

वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं। इसे 'वाक्य-विभाजन' या 'वाक्य-विश्लेषण' भी कहा जाता है।
सरल वाक्य का विग्रह करने पर एक उद्देश्य और एक विद्येय बनते है। संयुक्त वाक्य में से योजक को हटाने पर दो स्वतंत्र उपवाक्य (यानी दो सरल वाक्य) बनते हैं। मिश्र वाक्य में से योजक को हटाने पर दो अपूर्ण उपवाक्य बनते है।
सरल वाक्य= 1 उद्देश्य + 1 विद्येय
संयुक्त वाक्य= सरल वाक्य + सरल वाक्य
मिश्र वाक्य= प्रधान उपवाक्य + आश्रित उपवाक्य

वाक्य का रूपान्तर

किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं। हम किसी भी वाक्य को भित्र-भित्र वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते है और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।
सरल वाक्य- हर तरह के संकटो से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ।
संयुक्त वाक्य- संकटों ने उसे हर तरह से घेरा, किन्तु वह निराश नहीं हुआ।
मिश्र वाक्य- यद्यपि वह हर तरह के संकटों से घिरा था, तथापि निराश नहीं हुआ।
वाक्यपरिवर्तन करते समय एक बात खास तौर से ध्यान में रखनी चाहिए कि वाक्य का मूल अर्थ किसी भी हालत में विकृत न हो। यहाँ कुछ और उदाहरण देकर विषय को स्पष्ट किया जाता है-
(क) सरल वाक्य से मिश्र वाक्य
सरल वाक्य- उसने अपने मित्र का पुस्तकालय खरीदा।
मिश्र वाक्य- उसने उस पुस्तकालय को खरीदा, जो उसके मित्र का था।
सरल वाक्य- अच्छे लड़के परिश्रमी होते हैं।
मिश्र वाक्य- जो लड़के अच्छे होते है, वे परिश्रमी होते हैं।
सरल वाक्य- लोकप्रिय कवि का सम्मान सभी करते हैं।
मिश्र वाक्य- जो कवि लोकप्रिय होता है, उसका सम्मान सभी करते हैं।
(ख) सरल वाक्य से संयुक्त वाक्य
सरल वाक्य- अस्वस्थ रहने के कारण वह परीक्षा में सफल न हो सका।
संयुक्त वाक्य- वह अस्वस्थ था और इसलिए परीक्षा में सफल न हो सका।
सरल वाक्य- सूर्योदय होने पर कुहासा जाता रहा।
संयुक्त वाक्य- सूर्योदय हुआ और कुहासा जाता रहा।
सरल वाक्य- गरीब को लूटने के अतिरिक्त उसने उसकी हत्या भी कर दी।
संयुक्त वाक्य- उसने न केवल गरीब को लूटा, बल्कि उसकी हत्या भी कर दी।
(ग) मिश्र वाक्य से सरल वाक्य
मिश्र वाक्य- उसने कहा कि मैं निर्दोष हूँ।
सरल वाक्य- उसने अपने को निर्दोष घोषित किया।
मिश्र वाक्य- मुझे बताओ कि तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था।
सरल वाक्य- तुम मुझे अपने जन्म का समय और स्थान बताओ।
मिश्र वाक्य- जो छात्र परिश्रम करेंगे, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी।
सरल वाक्य- परिश्रमी छात्र अवश्य सफल होंगे।
(घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य
कर्तृवाचक वाक्य- लड़का रोटी खाता है।
कर्मवाचक वाक्य- लड़के से रोटी खाई जाती है।
कर्तृवाचक वाक्य- तुम व्याकरण पढ़ाते हो।
कर्मवाचक वाक्य- तुमसे व्याकरण पढ़ाया जाता है।
कर्तृवाचक वाक्य- मोहन गीत गाता है।
कर्मवाचक वाक्य- मोहन से गीत गाया जाता है।
(ड़) विधिवाचक से निषेधवाचक वाक्य
विधिवाचक वाक्य- वह मुझसे बड़ा है।
निषेधवाचक- मैं उससे बड़ा नहीं हूँ।
विधिवाचक वाक्य- अपने देश के लिए हरएक भारतीय अपनी जान देगा।
निषेधवाचक वाक्य- अपने देश के लिए कौन भारतीय अपनी जान न देगा ?

सामान्य वाक्य: अशुद्धियाँ एवं उनके संशोधन

वाक्यरचना के कुछ सामान्य नियम
वाक्य को सुव्यवस्थित और संयत रूप देने को व्याकरण में 'पदक्रम' कहते हैं। निर्दोष वाक्य लिखने के कुछ नियम हैं। इनकी सहायता से शुद्ध वाक्य लिखने का प्रयास किया जा सकता है। सुन्दर वाक्यों की रचना के लिए (क) क्रम (order), (ख) अन्वय (co-ordination) और (ग) प्रयोग (use) से सम्बद्ध कुछ सामान्य नियमों का ज्ञान आवश्यक है।
(क) क्रम
किसी वाक्य के सार्थक शब्दों को यथास्थान रखने की क्रिया को 'क्रम' अथवा 'पदक्रम' कहते हैं। इसके कुछ सामान्य नियम इस प्रकार हैं-
(i) हिंदी वाक्य के आरम्भ में कर्ता, मध्य में कर्म और अन्त में क्रिया होनी चाहिए। जैसे- मोहन ने भोजन किया।
यहाँ कर्ता 'मोहन', कर्म 'भोजन' और अन्त में क्रिया 'क्रिया' है।
(ii) उद्देश्य या कर्ता के विस्तार को कर्ता के पहले और विधेय या क्रिया के विस्तार को विधेय के पहले रखना चाहिए। जैसे-अच्छे लड़के धीरे-धीरे पढ़ते हैं।
(iii) कर्ता और कर्म के बीच अधिकरण, अपादान, सम्प्रदान और करण कारक क्रमशः आते हैं। जैसे-
मुरारि ने घर में (अधिकरण) आलमारी से (अपादान) श्याम के लिए (सम्प्रदान) हाथ से (करण) पुस्तक निकाली।
(iv) सम्बोधन आरम्भ में आता है। जैसे-
हे प्रभु, मुझपर दया करें।
(v) विशेषण विशेष्य या संज्ञा के पहले आता है। जैसे-
मेरी उजली कमीज कहीं खो गयी।
(vi) क्रियाविशेषण क्रिया के पहले आता है। जैसे-
वह तेज दौड़ता है।

(vii) प्रश्रवाचक पद या शब्द उसी संज्ञा के पहले रखा जाता है, जिसके बारे में कुछ पूछा जाय। जैसे-
क्या मोहन सो रहा है ?
टिप्पणी- यदि संस्कृत की तरह हिंदी में वाक्यरचना के साधारण क्रम का पालन न किया जाय, तो इससे कोई क्षति अथवा अशुद्धि नहीं होती। फिर भी, उसमें विचारों का एक तार्किक क्रम ऐसा होता है, जो एक विशेष रीति के अनुसार एक-दूसरे के पीछे आता है।
(ख) अन्वय (मेल)
'अन्वय' में लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार वाक्य के विभित्र पदों (शब्दों) का एक-दूसरे से सम्बन्ध या मेल दिखाया जाता है। यह मेल कर्ता और क्रिया का, कर्म और क्रिया का तथा संज्ञा और सर्वनाम का होता हैं।
कर्ता और क्रिया का मेल
(i) यदि कर्तृवाचक वाक्य में कर्ता विभक्तिरहित है, तो उसकी क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होंगे। जैसे-
करीम किताब पढ़ता है। सोहन मिठाई खाता है। रीता घर जाती है।
(ii) यदि वाक्य में एक ही लिंग, वचन और पुरुष के अनेक विभक्तिरहित कर्ता हों और अन्तिम कर्ता के पहले 'और' संयोजक आया हो, तो इन कर्ताओं की क्रिया उसी लिंग के बहुवचन में होगी जैसे-
मोहन और सोहन सोते हैं। आशा, उषा और पूर्णिमा स्कूल जाती हैं।
(iii) यदि वाक्य में दो भित्र लिंगों के कर्ता हों और दोनों द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो उनकी क्रिया पुंलिंग बहुवचन में होगी। जैसे-
नर-नारी गये। राजा-रानी आये। स्त्री-पुरुष मिले। माता-पिता बैठे हैं।
(iv) यदि वाक्य में दो भित्र-भित्र विभक्तिरहित एकवचन कर्ता हों और दोनों के बीच 'और' संयोजक आये, तो उनकी क्रिया पुंलिंग और बहुवचन में होगी। जैसे-
राधा और कृष्ण रास रचते हैं। बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते हैं।
(v) यदि वाक्य में दोनों लिंगों और वचनों के अनेक कर्ता हों, तो क्रिया बहुवचन में होगी और उनका लिंग अन्तिम कर्ता के अनुसार होगा। जैसे-
एक लड़का, दो बूढ़े और अनेक लड़कियाँ आती हैं। एक बकरी, दो गायें और बहुत-से बैल मैदान में चरते हैं।
(vi) यदि वाक्य में अनेक कर्ताओं के बीच विभाजक समुच्चयबोधक अव्यय 'या' अथवा 'वा' रहे तो क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग और वचन के अनुसार होगी। जैसे-
घनश्याम की पाँच दरियाँ वा एक कम्बल बिकेगा। हरि का एक कम्बल या पाँच दरियाँ बिकेंगी। मोहन का बैल या सोहन की गायें बिकेंगी।

(vii) यदि उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और अन्यपुरुष एक वाक्य में कर्ता बनकर आयें तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे-
वह और हम जायेंगे। हरि, तुम और हम सिनेमा देखने चलेंगे। वह, आप और मैं चलूँगा।
गुरूजी का मत है कि वाक्य में पहले मध्यमपुरुष प्रयुक्त होता है, उसके बाद अन्यपुरुष और अन्त में उत्तमपुरुष; जैसे- तुम, वह और मैं जाऊँगा।
कर्म और क्रिया का मेल
(i) यदि वाक्य में कर्ता 'ने' विभक्ति से युक्त हो और कर्म की 'को' विभक्ति न हो, तो उसकी क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होगी। जैसे-
आशा ने पुस्तक पढ़ी। हमने लड़ाई जीती। उसने गाली दी। मैंने रूपये दिये। तुमने क्षमा माँगी।
(ii) यदि कर्ता और कर्म दोनों विभक्तिचिह्नों से युक्त हों, तो क्रिया सदा एकवचन पुंलिंग और अन्यपुरुष में होगी। जैसे-
मैंने कृष्ण को बुलाया। तुमने उसे देखा। स्त्रियों ने पुरुषों को ध्यान से देखा।
(iii) यदि कर्ता 'को' प्रत्यय से युक्त हो और कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा आए तो क्रिया सदा पुंलिंग, एकवचन और अन्यपुरुष में होगी। जैसे-
तुम्हें (तुमको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता। अलका को रसोई बनाना नहीं आता।
उसे (उसको) समझकर बात करना नहीं आता।
(iv) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक विभक्तिरहित कर्म एक साथ आएँ, तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होगी। जैसे-
श्याम ने बैल और घोड़ा मोल लिए। तुमने गाय और भैंस मोल ली।
(v) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक-अप्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ एकवचन में आयें, तो क्रिया भी एकवचन में होगी। जैसे-
मैंने एक गाय और एक भैंस खरीदी। सोहन ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी। मोहन ने एक घोड़ा और एक हाथी बेचा।
(vi) यदि वाक्य में भित्र-भित्र लिंग के अनेक प्रत्यय कर्म आयें और वे 'और' से जुड़े हों, तो क्रिया अन्तिम कर्म के लिंग और वचन में होगी। जैसे-
मैंने मिठाई और पापड़ खाये। उसने दूध और रोटी खिलाई।
संज्ञा और सर्वनाम का मेल
(i) वाक्य में लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार सर्वनाम उस संज्ञा का अनुसरण करता है। जिसके बदले उसका प्रयोग होता है। जैसे-
लड़के वे ही हैं। लड़कियाँ भी ये ही हैं।
(ii) यदि वाक्य में अनेक संज्ञाओं के स्थान पर एक ही सर्वनाम आये, तो वह पुंलिंग बहुवचन में होगा। जैसे-
रमेश और सुरेश पटना गये है, दो दिन बाद वे लौटेंगे।
सुरेश, शीला और रमा आये और वे चले भी गये।
(ग) वाक्यगत प्रयोग
वाक्य का सारा सौन्दर्य पदों अथवा शब्दों के समुचित प्रयोग पर आश्रित है। पदों के स्वरूप और औचित्य पर ध्यान रखे बिना शिष्ट और सुन्दर वाक्यों की रचना नहीं होती। प्रयोग-सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश निम्रलिखित हैं-
कुछ आवश्यक निर्देश
(i) एक वाक्य से एक ही भाव प्रकट हो।
(ii) शब्दों का प्रयोग करते समय व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का पालन हो।
(iii) वाक्यरचना में अधूरे वाक्यों को नहीं रखा जाये।
(iv) वाक्य-योजना में स्पष्टता और प्रयुक्त शब्दों में शैली-सम्बन्धी शिष्टता हो।
(v) वाक्य में शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हो। तात्पर्य यह कि वाक्य में सभी शब्दों का प्रयोग एक ही काल में, एक ही स्थान में और एक ही साथ होना चाहिए।
(vi) वाक्य में ध्वनि और अर्थ की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(vii) वाक्य में व्यर्थ शब्द न आने पायें।
(viii) वाक्य-योजना में आवश्यकतानुसार जहाँ-तहाँ मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हो।
(ix) वाक्य में एक ही व्यक्ति या वस्तु के लिए कहीं 'यह' और कहीं 'वह', कहीं 'आप' और कहीं 'तुम', कहीं 'इसे' और कहीं 'इन्हें', कहीं 'उसे' और कहीं 'उन्हें', कहीं 'उसका' और कहीं 'उनका', कहीं 'इनका' और कहीं 'इसका' प्रयोग नहीं होना चाहिए।
(x) वाक्य में पुनरुक्तिदोष नहीं होना चाहिए। शब्दों के प्रयोग में औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।
(xi) वाक्य में अप्रचलित शब्दों का व्यवहार नहीं होना चाहिए।
(xii) परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। यह वाक्य अशुद्ध है- उसने कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें 'उसे' के स्थान पर 'मुझे' होना चाहिए।
अन्य ध्यातव्य बातें
(1) 'प्रत्येक', 'किसी', 'कोई' का प्रयोग- ये सदा एकवचन में प्रयुक्त होते है, बहुवचन में प्रयोग अशुद्ध है। जैसे-
प्रत्येक- प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है।
प्रत्येक पुरुष से मेरा निवेदन है।
कोई- मैंने अब तक कोई काम नहीं किया।
कोई ऐसा भी कह सकता है।
किसी- किसी व्यक्ति का वश नहीं चलता।
किसी-किसी का ऐसा कहना है।
किसी ने कहा था।
टिप्पणी- 'कोई' और 'किसी' के साथ 'भी' का प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- कोई भी होगा, तब काम चल जायेगा। यहाँ 'भी' अनावश्यक है। कोई 'कोऽपि' का तद्भव है। 'कोई' और 'किसी' में 'भी' का भाव वर्त्तमान है।
(2) 'द्वारा' का प्रयोग- किसी व्यक्ति के माध्यम (through) से जब कोई काम होता है, तब संज्ञा के बाद 'द्वारा' का प्रयोग होता है; वस्तु (संज्ञा) के बाद 'से' लगता है। जैसे-
सुरेश द्वारा यह कार्य सम्पत्र हुआ। युद्ध से देश पर संकट छाता है।
(3) 'सब' और 'लोग' का प्रयोग- सामान्यतः दोनों बहुवचन हैं। पर कभी-कभी 'सब' का समुच्चय-रूप में एकवचन में भी प्रयोग होता है। जैसे-
तुम्हारा सब काम गलत होता है।
यदि काम की अधिकता का बोध हो तो 'सब' का प्रयोग बहुवचन में होगा। जैसे-
सब यही कहते हैं।
हिंदी में 'सब' समुच्चय और संख्या- दोनों का बोध कराता है।
'लोग' सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जैसे-
लोग अन्धे नहीं हैं। लोग ठीक ही कहते हैं।
कभी-कभी 'सब लोग' का प्रयोग बहुवचन में होता है। 'लोग' कहने से कुछ व्यक्तियों का और 'सब लोग' कहने से अनगिनत और अधिक व्यक्तियों का बोध होता है। जैसे-
सब लोगों का ऐसा विचार है। सब लोग कहते है कि गाँधीजी महापुरुष थे।
(4) व्यक्तिवाचक संज्ञा और क्रिया का मेल- यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा कर्ता है, तो उसके लिंग और वचन के अनुसार क्रिया के लिंग और वचन होंगे। जैसे-
कशी सदा भारतीय संस्कृति का केन्द्र रही है।
यहाँ कर्ता स्त्रीलिंग है।
पहले कलकत्ता भारत की राजधानी था।
यहाँ कर्ता पुंलिंग है।
उसका ज्ञान ही उसकी पूँजी था।
यहाँ कर्ता पुंलिंग है।
(5) समयसूचक समुच्चय का प्रयोग- ''तीन बजे हैं। आठ बजे हैं।'' इन वाक्यों में तीन और आठ बजने का बोध समुच्चय में हुआ है।
(6) 'पर' और 'ऊपर' का प्रयोग- 'ऊपर' और 'पर' व्यक्ति और वस्तु दोनों के साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु 'पर' सामान्य ऊँचाई का और 'ऊपर' विशेष ऊँचाई का बोधक है। जैसे-
पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर है। इस विभाग में मैं सबसे ऊपर हूँ।
हिंदी में 'ऊपर' की अपेक्षा 'पर' का व्यवहार अधिक होता है। जैसे-
मुझपर कृपा करो। छत पर लोग बैठे हैं। गोप पर अभियोग है। मुझपर तुम्हारे एहसान हैं।
(7) 'बाद' और 'पीछे' का प्रयोग- यदि काल का अन्तर बताना हो, तो 'बाद' का और यदि स्थान का अन्तर सूचित करना हो, तो 'पीछे' का प्रयोग होता है। जैसे-
उसके बाद वह आया- काल का अन्तर।
मेरे बाद इसका नम्बर आया- काल का अन्तर।
गाड़ी पीछे रह गयी- स्थान का अन्तर।
मैं उससे बहुत पीछे हूँ- स्थान का अन्तर।
(8) (क) नए, नये, नई, नयी का शुद्ध प्रयोग- जिस शब्द का अन्तिम वर्ण 'या' है उसका बहुवचन 'ये' होगा। 'नया' मूल शब्द है, इसका बहुवचन 'नये' और स्त्रीलिंग 'नयी' होगा।
(ख) गए, गई, गये, गयी का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'गया' है। उपरिलिखित नियम के अनुसार 'गया' का बहुवचन 'गये' और स्त्रीलिंग 'गयी' होगा।
(ग) हुये, हुए, हुयी, हुई का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'हुआ' है, एकवचन में। इसका बहुवचन होगा 'हुए'; 'हुये' नहीं 'हुए' का स्त्रीलिंग 'हुई' होगा; 'हुयी' नहीं।
(घ) किए, किये, का शुद्ध प्रयोग- 'किया' मूल शब्द है; इसका बहुवचन 'किये' होगा।
(ड़) लिए, लिये, का शुद्ध प्रयोग- दोनों शुद्ध रूप हैं। किन्तु जहाँ अव्यय व्यवहृत होगा वहाँ 'लिए' आयेगा; जैसे- मेरे लिए उसने जान दी। क्रिया के अर्थ में 'लिये' का प्रयोग होगा; क्योंकि इसका मूल शब्द 'लिया' है।
(च) चाहिये, चाहिए का शुद्ध प्रयोग- 'चाहिए' अव्यय है। अव्यय विकृत नहीं होता। इसलिए 'चाहिए' का प्रयोग शुद्ध है; 'चाहिये' का नहीं। 'इसलिए' के साथ भी ऐसी ही बात है।

                                         संज्ञा


संज्ञा(Noun)की परिभाषा


संज्ञा उस विकारी शब्द को कहते है, जिससे किसी विशेष वस्तु, भाव और जीव के नाम का बोध हो, उसे संज्ञा कहते है।
दूसरे शब्दों में- किसी प्राणी, वस्तु, स्थान, गुण या भाव के नाम को संज्ञा कहते है।

जैसे- प्राणियों नाम-मोर, घोड़ा, अनिल, किरण, जवाहरलाल नेहरू आदि।

वस्तुओ के नाम- अनार, रेडियो, किताब, सन्दूक, आदि।

स्थानों के नाम- कुतुबमीनार, नगर, भारत, मेरठ आदि

भावों के नाम- वीरता, बुढ़ापा, मिठास आदि
यहाँ 'वस्तु' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है, जो केवल वाणी और पदार्थ का वाचक नहीं, वरन उनके धर्मो का भी सूचक है।
साधारण अर्थ में 'वस्तु' का प्रयोग इस अर्थ में नहीं होता। अतः वस्तु के अन्तर्गत प्राणी, पदार्थ और धर्म आते हैं। इन्हीं के आधार पर संज्ञा के भेद किये गये हैं।

संज्ञा के भेद

संज्ञा के पाँच भेद होते है-
(1)व्यक्तिवाचक (proper noun ) 
(2) जातिवाचक (common noun)
(3)भाववाचक (abstract noun)
(4)समूहवाचक (collective noun)
(5)द्र्व्यवाचक (material noun)
(1)व्यक्तिवाचक संज्ञा:-जिस शब्द से किसी विशेष व्यक्ति, वस्तु या स्थान के नाम का बोध हो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। 
जैसे-
व्यक्ति का नाम-रवीना, सोनिया गाँधी, श्याम, हरि, सुरेश, सचिन आदि।
वस्तु का नाम- कार, टाटा चाय, कुरान, गीता रामायण आदि।
स्थान का नाम-ताजमहल, कुतुबमीनार, जयपुर आदि।
दिशाओं के नाम- उत्तर, पश्र्चिम, दक्षिण, पूर्व।
देशों के नाम- भारत, जापान, अमेरिका, पाकिस्तान, बर्मा।
राष्ट्रीय जातियों के नाम- भारतीय, रूसी, अमेरिकी।
समुद्रों के नाम- काला सागर, भूमध्य सागर, हिन्द महासागर, प्रशान्त महासागर।
नदियों के नाम- गंगा, ब्रह्मपुत्र, बोल्गा, कृष्णा, कावेरी, सिन्धु।
पर्वतों के नाम- हिमालय, विन्ध्याचल, अलकनन्दा, कराकोरम।
नगरों, चौकों और सड़कों के नाम- वाराणसी, गया, चाँदनी चौक, हरिसन रोड, अशोक मार्ग।
पुस्तकों तथा समाचारपत्रों के नाम- रामचरितमानस, ऋग्वेद, धर्मयुग, इण्डियन नेशन, आर्यावर्त।
ऐतिहासिक युद्धों और घटनाओं के नाम- पानीपत की पहली लड़ाई, सिपाही-विद्रोह, अक्तूबर-क्रान्ति।
दिनों, महीनों के नाम- मई, अक्तूबर, जुलाई, सोमवार, मंगलवार।
त्योहारों, उत्सवों के नाम- होली, दीवाली, रक्षाबन्धन, विजयादशमी।
(2) जातिवाचक संज्ञा :-जिस शब्द से किसी जाति के सभी प्राणियों या प्रदार्थो का बोध होता है, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- लड़का, पशु-पक्षयों, वस्तु, नदी, मनुष्य, पहाड़ आदि।
'लड़का' से राजेश, सतीश, दिनेश आदि सभी 'लड़कों का बोध होता है।
'पशु-पक्षयों' से गाय, घोड़ा, कुत्ता आदि सभी जाति का बोध होता है।
'वस्तु' से मकान कुर्सी, पुस्तक, कलम आदि का बोध होता है।
'नदी' से गंगा यमुना, कावेरी आदि सभी नदियों का बोध होता है।
'मनुष्य' कहने से संसार की मनुष्य-जाति का बोध होता है।
'पहाड़' कहने से संसार के सभी पहाड़ों का बोध होता हैं।
(3)भाववाचक संज्ञा :-जिन शब्दों से किसी प्राणी या पदार्थ के गुण, भाव, स्वभाव या अवस्था का बोध होता है, उन्हें भाववाचक संज्ञा कहते हैं।
जैसे- उत्साह, ईमानदारी, बचपन, आदि । इन उदाहरणों में 'उत्साह'से मन का भाव है। 'ईमानदारी' से गुण का बोध होता है। 'बचपन' जीवन की एक अवस्था या दशा को बताता है। अतः उत्साह, ईमानदारी, बचपन, आदि शब्द भाववाचक संज्ञाए हैं।
हर पदार्थ का धर्म होता है। पानी में शीतलता, आग में गर्मी, मनुष्य में देवत्व और पशुत्व इत्यादि का होना आवश्यक है। पदार्थ का गुण या धर्म पदार्थ से अलग नहीं रह सकता। घोड़ा है, तो उसमे बल है, वेग है और आकार भी है। व्यक्तिवाचक संज्ञा की तरह भाववाचक संज्ञा से भी किसी एक ही भाव का बोध होता है। 'धर्म, गुण, अर्थ' और 'भाव' प्रायः पर्यायवाची शब्द हैं। इस संज्ञा का अनुभव हमारी इन्द्रियों को होता है और प्रायः इसका बहुवचन नहीं होता।
भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण
भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण जातिवाचक संज्ञा, विशेषण, क्रिया, सर्वनाम और अव्यय में प्रत्यय लगाकर होता है। उदाहरण-
(1) जातिवाचक संज्ञा से भाववाचक संज्ञा के कुछ उदाहरण
जातिवाचक संज्ञाभाववाचक संज्ञााजातिवाचक संज्ञाभाववाचक संज्ञाा
स्त्री-(स्त्रीत्व)भाई-(भाईचारा)
मनुष्य-(मनुष्यता)पुरुष-(पुरुषत्व, पौरुष)
शास्त्र-(शास्त्रीयता)जाति-(जातीयता)
पशु-(पशुता)बच्चा-(बचपन)
दनुज-(दनुजता)नारी-(नारीत्व)
पात्र-(पात्रता)बूढा-(बुढ़ापा)
लड़का-लड़कपनमित्र-मित्रता
दास-दासत्वपण्डित-पण्डिताई
अध्यापक-अध्यापनसेवक-सेवा
(2) विशेषण से संज्ञा (भाववाचक संज्ञा) के उदाहरण
विशेषणसंज्ञाविशेषणसंज्ञा
लघु-(लघुता, लघुत्व, लाघव)वीर-(वीरता, वीरत्व)
एक-(एकता, एकत्व)चालाक-(चालाकी)
खट्टा-(खटाई)गरीब-(गरीबी)
गँवार-(गँवारपन)पागल-(पागलपन)
बूढा-(बुढ़ापा)मोटा-(मोटापा)
नवाब-(नवाबी)दीन-(दीनता, दैन्य)
बड़ा-(बड़ाई)सुंदर-(सौंदर्य, सुंदरता)
भला-(भलाई)बुरा-(बुराई)
ढीठ-(ढिठाई)चौड़ा-(चौड़ाई)
लाल-(लाली, लालिमा)बेईमान-(बेईमानी)
सरल-(सरलता, सारल्य)आवश्यकता-(आवश्यकता)
परिश्रमी-(परिश्रम)अच्छा-(अच्छाई)
गंभीर-(गंभीरता, गांभीर्य)सभ्य-(सभ्यता)
स्पष्ट-(स्पष्टता)भावुक-(भावुकता)
अधिक-(अधिकता, आधिक्य)गर्म-गर्मी
सर्द-सर्दीकठोर-कठोरता
मीठा-मिठासचतुर-चतुराई
सफेद-सफेदीश्रेष्ठ-श्रेष्ठता
मूर्ख-मूर्खताराष्ट्रीयराष्ट्रीयता
(3) क्रिया से संज्ञा (भाववाचक संज्ञा) के उदाहरण
क्रियासंज्ञाक्रियासंज्ञा
खोजना-(खोज)सीना-(सिलाई)
जीतना-(जीत)रोना-(रुलाई)
लड़ना-(लड़ाई)पढ़ना-(पढ़ाई)
चलना-(चाल, चलन)पीटना-(पिटाई)
देखना-(दिखावा, दिखावट)समझना-(समझ)
सींचना-(सिंचाई)पड़ना-(पड़ाव)
पहनना-(पहनावा)चमकना-(चमक)
लूटना-(लूट)जोड़ना-(जोड़)
घटना-(घटाव)नाचना-(नाच)
बोलना-(बोल)पूजना-(पूजन)
झूलना-(झूला)जोतना-(जुताई)
कमाना-(कमाई)बचना-(बचाव)
रुकना-(रुकावट)बनना-(बनावट)
मिलना-(मिलावट)बुलाना-(बुलावा)
भूलना-(भूल)छापना-(छापा, छपाई)
बैठना-(बैठक, बैठकी)बढ़ना-(बाढ़)
घेरना-(घेरा)छींकना-(छींक)
फिसलना-(फिसलन)खपना-(खपत)
रँगना-रँगाई, रंगतमुसकाना-(मुसकान)
उड़ना-(उड़ान)घबराना-घबराहट
मुड़ना-(मोड़)सजाना-सजावट
चढ़ना-चढाईबहना-बहाव
मारना-मारदौड़ना-दौड़
गिरना-गिरावटकूदना-कूद


4) संज्ञा से विशेषण के उदाहरण
संज्ञाविशेषणसंज्ञाविशेषण
अंत-(अंतिम, अंत्य)अर्थ-(आर्थिक)
अवश्य-(आवश्यक)अंश-(आंशिक)
अभिमान-(अभिमानी)अनुभव-(अनुभवी)
इच्छा-(ऐच्छिक)इतिहास-(ऐतिहासिक)
ईश्र्वर-(ईश्र्वरीय)उपज-(उपजाऊ)
उन्नति-(उन्नत)कृपा-(कृपालु)
काम-(कामी, कामुक)काल-(कालीन)
कुल-(कुलीन)केंद्र-(केंद्रीय)
क्रम-(क्रमिक)कागज-(कागजी)
किताब-(किताबी)काँटा-(कँटीला)
कंकड़-(कंकड़ीला)कमाई-(कमाऊ)
क्रोध-(क्रोधी)आवास-(आवासीय)
आसमान-(आसमानी)आयु-(आयुष्मान)
आदि-(आदिम)अज्ञान-(अज्ञानी)
अपराध-(अपराधी)चाचा-(चचेरा)
जवाब-(जवाबी)जहर-(जहरीला)
जाति-(जातीय)जंगल-(जंगली)
झगड़ा-(झगड़ालू)तालु-(तालव्य)
तेल-(तेलहा)देश-(देशी)
दान-(दानी)दिन-(दैनिक)
दया-(दयालु)दर्द-(दर्दनाक)
दूध-(दुधिया, दुधार)धन-(धनी, धनवान)
धर्म-(धार्मिक)नीति-(नैतिक)
खपड़ा-(खपड़ैल)खेल-(खेलाड़ी)
खर्च-(खर्चीला)खून-(खूनी)
गाँव-(गँवारू, गँवार)गठन-(गठीला)
गुण-(गुणी, गुणवान)घर-(घरेलू)
घमंड-(घमंडी)घाव-(घायल)
चुनाव-(चुनिंदा, चुनावी)चार-(चौथा)
पश्र्चिम-(पश्र्चिमी)पूर्व-(पूर्वी)
पेट-(पेटू)प्यार-(प्यारा)
प्यास-(प्यासा)पशु-(पाशविक)
पुस्तक-(पुस्तकीय)पुराण-(पौराणिक)
प्रमाण-(प्रमाणिक)प्रकृति-(प्राकृतिक)
पिता-(पैतृक)प्रांत-(प्रांतीय)
बालक-(बालकीय)बर्फ-(बर्फीला)
भ्रम-(भ्रामक, भ्रांत)भोजन-(भोज्य)
भूगोल-(भौगोलिक)भारत-(भारतीय)
मन-(मानसिक)मास-(मासिक)
माह-(माहवारी)माता-(मातृक)
मुख-(मौखिक)नगर-(नागरिक)
नियम-(नियमित)नाम-(नामी, नामक)
निश्र्चय-(निश्र्चित)न्याय-(न्यायी)
नौ-(नाविक)नमक-(नमकीन)
पाठ-(पाठ्य)पूजा-(पूज्य, पूजित)
पीड़ा-(पीड़ित)पत्थर-(पथरीला)
पहाड़-(पहाड़ी)रोग-(रोगी)
राष्ट्र-(राष्ट्रीय)रस-(रसिक)
लोक-(लौकिक)लोभ-(लोभी)
वेद-(वैदिक)वर्ष-(वार्षिक)
व्यापर-(व्यापारिक)विष-(विषैला)
विस्तार-(विस्तृत)विवाह-(वैवाहिक)
विज्ञान-(वैज्ञानिक)विलास-(विलासी)
विष्णु-(वैष्णव)शरीर-(शारीरिक)
शास्त्र-(शास्त्रीय)साहित्य-(साहित्यिक)
समय-(सामयिक)स्वभाव-(स्वाभाविक)
सिद्धांत-(सैद्धांतिक)स्वार्थ-(स्वार्थी)
स्वास्थ्य-(स्वस्थ)स्वर्ण-(स्वर्णिम)
मामा-(ममेरा)मर्द-(मर्दाना)
मैल-(मैला)मधु-(मधुर)
रंग-(रंगीन, रँगीला)रोज-(रोजाना)
साल-(सालाना)सुख-(सुखी)
समाज-(सामाजिक)संसार-(सांसारिक)
स्वर्ग-(स्वर्गीय, स्वर्गिक)सप्ताह-(सप्ताहिक)
समुद्र-(सामुद्रिक, समुद्री)संक्षेप-(संक्षिप्त)
सुर-(सुरीला)सोना-(सुनहरा)
क्षण-(क्षणिक)हवा-(हवाई)
(5) क्रिया से विशेषण के उदाहरण
क्रियाविशेषणक्रियाविशेषण
लड़ना-(लड़ाकू)भागना-(भगोड़ा)
अड़ना-(अड़ियल)देखना-(दिखाऊ)
लूटना-(लुटेरा)भूलना-(भुलक्कड़)
पीना-(पियक्कड़)तैरना-(तैराक)
जड़ना-(जड़ाऊ)गाना-(गवैया)
पालना-(पालतू)झगड़ना-(झगड़ालू)
टिकना-(टिकाऊ)चाटना-(चटोर)
बिकना-(बिकाऊ)पकना-(पका)
(6) सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा
अपना- अपनापन अपनाव;
मम- ममता ममत्व;
निज- निजत्व;
पराया से परायापन इत्यादि।
(7) क्रिया विशेषण से भाववाचक संज्ञा
मन्द- मन्दी;
दूर- दूरी;
तीव्र- तीव्रता;
शीघ्र- शीघ्रता इत्यादि।
(8) अव्यय से भाववाचक संज्ञा
परस्पर- पारस्पर्य;
समीप- सामीप्य;
निकट- नैकट्य;
शाबाश- शाबाशी;
वाहवाह; वाहवाही इत्यादि।

(4)समूहवाचक संज्ञा :- जिस संज्ञा शब्द से वस्तुअों के समूह या समुदाय का बोध हो, उसे समूहवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- व्यक्तियों का समूह- भीड़, जनता, सभा, कक्षा; वस्तुओं का समूह- गुच्छा, कुंज, मण्डल, घौद।
(5)द्र्व्यवाचक संज्ञा :-जिस संज्ञा से नाप-तौलवाली वस्तु का बोध हो, उसे द्र्व्यवाचक संज्ञा कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन संज्ञा शब्दों से किसी धातु, द्रव या पदार्थ का बोध हो, उन्हें द्र्व्यवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- ताम्बा, पीतल, चावल, घी, तेल, सोना, लोहा आदि।
संज्ञाओं का प्रयोग
संज्ञाओं के प्रयोग में कभी-कभी उलटफेर भी हो जाया करता है। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे है-
(क) जातिवाचक : व्यक्तिवाचक- कभी- कभी जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में होता है। जैसे- 'पुरी' से जगत्राथपुरी का 'देवी' से दुर्गा का, 'दाऊ' से कृष्ण के भाई बलदेव का, 'संवत्' से विक्रमी संवत् का, 'भारतेन्दु' से बाबू हरिश्र्चन्द्र का और 'गोस्वामी' से तुलसीदासजी का बोध होता है। इसी तरह बहुत-सी योगरूढ़ संज्ञाएँ मूल रूप से जातिवाचक होते हुए भी प्रयोग में व्यक्तिवाचक के अर्थ में चली आती हैं। जैसे- गणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल इत्यादि।
(ख) व्यक्तिवाचक : जातिवाचक- कभी-कभी व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक (अनेक व्यक्तियों के अर्थ) में होता है। ऐसा किसी व्यक्ति का असाधारण गुण या धर्म दिखाने के लिए किया जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्तिवाचक संज्ञा जातिवाचक संज्ञा में बदल जाती है। जैसे- गाँधी अपने समय के कृष्ण थे; यशोदा हमारे घर की लक्ष्मी है; तुम कलियुग के भीम हो इत्यादि।
(ग) भाववाचक : जातिवाचक- कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में होता है। उदाहरणार्थ- ये सब कैसे अच्छे पहरावे है। यहाँ 'पहरावा' भाववाचक संज्ञा है, किन्तु प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में हुआ। 'पहरावे' से 'पहनने के वस्त्र' का बोध होता है।

संज्ञा के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक में सम्बन्ध)

संज्ञा विकारी शब्द है। विकार शब्दरूपों को परिवर्तित अथवा रूपान्तरित करता है। संज्ञा के रूप लिंग, वचन और कारक चिह्नों (परसर्ग) के कारण बदलते हैं।
लिंग के अनुसार
नर खाता है- नारी खाती है।
लड़का खाता है- लड़की खाती है।
इन वाक्यों में 'नर' पुंलिंग है और 'नारी' स्त्रीलिंग। 'लड़का' पुंलिंग है और 'लड़की' स्त्रीलिंग। इस प्रकार, लिंग के आधार पर संज्ञाओं का रूपान्तर होता है।
वचन के अनुसार
लड़का खाता है- लड़के खाते हैं।
लड़की खाती है- लड़कियाँ खाती हैं।
एक लड़का जा रहा है- तीन लड़के जा रहे हैं।
इन वाक्यों में 'लड़का' शब्द एक के लिए आया है और 'लड़के' एक से अधिक के लिए। 'लड़की' एक के लिए और 'लड़कियाँ' एक से अधिक के लिए व्यवहृत हुआ है। यहाँ संज्ञा के रूपान्तर का आधार 'वचन' है। 'लड़का' एकवचन है और 'लड़के' बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है।
कारक- चिह्नों के अनुसार
लड़का खाना खाता है- लड़के ने खाना खाया।
लड़की खाना खाती है- लड़कियों ने खाना खाया।
इन वाक्यों में 'लड़का खाता है' में 'लड़का' पुंलिंग एकवचन है और 'लड़के ने खाना खाया' में भी 'लड़के' पुंलिंग एकवचन है, पर दोनों के रूप में भेद है। इस रूपान्तर का कारण कर्ता कारक का चिह्न 'ने' है, जिससे एकवचन होते हुए भी 'लड़के' रूप हो गया है। इसी तरह, लड़के को बुलाओ, लड़के से पूछो, लड़के का कमरा, लड़के के लिए चाय लाओ इत्यादि वाक्यों में संज्ञा (लड़का-लड़के) एकवचन में आयी है। इस प्रकार, संज्ञा बिना कारक-चिह्न के भी होती है और कारक चिह्नों के साथ भी। दोनों स्थितियों में संज्ञाएँ एकवचन में अथवा बहुवचन में प्रयुक्त होती है। उदाहरणार्थ-
बिना कारक-चिह्न के- लड़के खाना खाते हैं। (बहुवचन)
लड़कियाँ खाना खाती हैं। (बहुवचन)

कारक-चिह्नों के साथ- लड़कों ने खाना खाया।
लड़कियों ने खाना खाया।
लड़कों से पूछो।
लड़कियों से पूछो।
इस प्रकार, संज्ञा का रूपान्तर लिंग, वचन और कारक के कारण होता है।

                                   सर्वनाम


सर्वनाम (Pronoun)की परिभाषा

जिन शब्दों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है, उन्हें सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में-सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते है, जो पूर्वापरसंबध से किसी भी संज्ञा के बदले आता है।
जैसे- मै, तू, वह, आप, कोई, यह, ये, वे, उसका इत्यादि।
अन्य उदाहरण
(1)'सुभाष' एक विद्यार्थी है।
(2) वह (सुभाष) रोज स्कूल जाता है।
(3)उसके (सुभाष के) पास सुन्दर बस्ता है।
(4)उसे (सुभाष को )घूमना बहुत पसन्द है।
उपयुक्त वाक्यों में 'सुभाष' शब्द संज्ञा है तथा इसके स्थान पर वह, उसके, उसे शब्द संज्ञा (सुभाष) के स्थान पर प्रयोग किये गए है। इसलिए ये सर्वनाम है।
सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले जो शब्द आते है, उन्हें 'सर्वनाम' कहते हैं।
संज्ञा की अपेक्षा सर्वनाम की विलक्षणता यह है कि संज्ञा से जहाँ उसी वस्तु का बोध होता है, जिसका वह (संज्ञा) नाम है, वहाँ सर्वनाम में पूर्वापरसम्बन्ध के अनुसार किसी भी वस्तु का बोध होता है। 'लड़का' कहने से केवल लड़के का बोध होता है, घर, सड़क आदि का बोध नहीं होता; किन्तु 'वह' कहने से पूर्वापरसम्बन्धके अनुसार ही किसी वस्तु का बोध होता है।

सर्वनाम के भेद

सर्वनाम के छ: भेद होते है-
(1)पुरुषवाचक सर्वनाम (personal pronoun)
(2) निश्चयवाचक सर्वनाम (demonstrative pronoun)
(3)अनिश्चयवाचक सर्वनाम (Indefinite pronoun)
(4)संबंधवाचक सर्वनाम (Relative Pronoun)
(5)प्रश्नवाचक सर्वनाम (Interrogative Pronoun)
(6)निजवाचक सर्वनाम (Reflexive Pronoun)
(1) पुरुषवाचक सर्वनाम:-जिन सर्वनाम शब्दों से व्यक्ति का बोध होता है, उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में-'पुरुषवाचक सर्वनाम' पुरुषों (स्त्री या पुरुष) के नाम के बदले आते हैं।
जैसे- मैं आता हूँ। तुम जाते हो। वह भागता है।
उपर्युक्त वाक्यों में 'मैं, तुम, वह' पुरुषवाचक सर्वनाम हैं।

पुरुषवाचक सर्वनाम के प्रकार

पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते है-
(i)उत्तम पुरुष (ii)मध्यम पुरुष (iii)अन्य पुरुष
(i)उत्तम पुरुष :-जिन सर्वनामों का प्रयोग बोलने वाला अपने लिए करता है, उन्हें उत्तम पुरुष कहते है।
जैसे- मैं, हमारा, हम, मुझको, आदि।
उदाहरण- मैं स्कूल जाऊँगा।
हम मतदान नहीं करेंगे।
(ii) मध्यम पुरुष :-जिन सर्वनामों का प्रयोग सुनने वाले के लिए किया जाता है, उन्हें मध्यम पुरुष कहते है।
जैसे- तू, तुम, तुम्हे, आप, आपने आदि।
उदाहरण- तुमने होमवर्क क्यों नहीं किया
तुम सो जाओ।
(iii)अन्य पुरुष:-जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है, उन्हें अन्य पुरुष कहते है।
जैसे- वे, यह, वह, इनका, इन्हें, उनसे आदि।
उदाहरण- वे मैच नही खेलेंगे।
उन्होंने कमर कस ली है।
(2) निश्चयवाचक सर्वनाम:- सर्वनाम के जिस रूप से हमे किसी बात या वस्तु का निश्चत रूप से बोध होता है, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस सर्वनाम से वक्ता के पास या दूर की किसी वस्तु के निश्र्चय का बोध होता है, उसे 'निश्र्चयवाचक सर्वनाम' कहते हैं।
जैसे- यह, वह, ये, वे आदि।
उदाहरण- पास की वस्तु के लिए- 'यह' कोई नया काम नहीं है; दूर की वस्तु के लिए- रोटी मत खाओ, क्योंकि 'वह' जली है।
(3) अनिश्चयवाचक सर्वनाम:-जिस सर्वनाम शब्द से किसी निश्चित व्यक्ति या वस्तु का बोध न हो, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- कोई, कुछ, किसी आदि।
उदाहरण- 'कोई'- ऐसा न हो कि 'कोई' आ जाय;
'कुछ'- उसने 'कुछ' नहीं खाया।
(4)संबंधवाचक सर्वनाम :-जिन सर्वनाम शब्दों का दूसरे सर्वनाम शब्दों से संबंध ज्ञात हो तथा जो शब्द दो वाक्यों को जोड़ते है, उन्हें संबंधवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- जो, जिसकी, सो, जिसने, जैसा, वैसा आदि।
उदाहरण- जैसा करेगा वैसा भरेगा।
जो परिश्रम करते हैं, वे सुखी रहते हैं।
वह 'जो' न करे, 'सो' थोड़ा
(5)प्रश्नवाचक सर्वनाम :-जो सर्वनाम शब्द सवाल पूछने के लिए प्रयुक्त होते है, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते है।
सरल शब्दों में- प्रश्र करने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, उन्हें 'प्रश्रवाचक सर्वनाम' कहते है।
जैसे- कौन, क्या, किसने आदि।
उदाहरण- टोकरी में क्या रखा है।
बाहर कौन खड़ा है।
तुम क्या खा रहे हो ?
यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि 'कौन' का प्रयोग चेतन जीवों के लिए और 'क्या' का प्रयोग जड़ पदार्थो के लिए होता है।
(6) निजवाचक सर्वनाम :-जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग कर्ता अपने लिए (स्वयं के अर्थ में) करता है, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- अपने आप, निजी, खुद आदि।
उदाहरण- मैने अपना कार्य स्वंय किया।
आप यह कार्य खुद कीजिये।
'निजवाचक सर्वनाम' का रूप 'आप' है। लेकिन पुरुषवाचक के अन्यपुरुषवाले 'आप' से इसका प्रयोग बिलकुल अलग है। यह कर्ता का बोधक है, पर स्वयं कर्ता का काम नहीं करता। पुरुषवाचक 'आप' बहुवचन में आदर के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे- आप मेरे सिर-आखों पर है; आप क्या राय देते है ? किन्तु, निजवाचक 'आप' एक ही तरह दोनों वचनों में आता है और तीनों पुरुषों में इसका प्रयोग किया जा सकता है।
निजवाचक सर्वनाम 'आप' का प्रयोग निम्नलिखित अर्थो में होता है-
(क) निजवाचक 'आप' का प्रयोग किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण (निश्र्चय) के लिए होता है। जैसे- मैं 'आप' वहीं से आया हूँ; मैं 'आप' वही कार्य कर रहा हूँ।
(ख) निजवाचक 'आप' का प्रयोग दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए भी होता है। जैसे- उन्होंने मुझे रहने को कहा और 'आप' चलते बने; वह औरों को नहीं, 'अपने' को सुधार रहा है।
(ग) सर्वसाधारण के अर्थ में भी 'आप' का प्रयोग होता है। जैसे- 'आप' भला तो जग भला; 'अपने' से बड़ों का आदर करना उचित है।
(घ) अवधारण के अर्थ में कभी-कभी 'आप' के साथ 'ही' जोड़ा जाता है। जैसे- मैं 'आप ही' चला आता था; यह काम 'आप ही'; मैं यह काम 'आप ही' कर लूँगा।
संयुक्त सर्वनाम
रूस के हिन्दी वैयाकरण डॉ० दीमशित्स ने एक और प्रकार के सर्वनाम का उल्लेख किया है और उसे 'संयुक्त सर्वनाम' कहा है। उन्हीं के शब्दों में, 'संयुक्त सर्वनाम' पृथक श्रेणी के सर्वनाम हैं। सर्वनाम के सब भेदों से इनकी भित्रता इसलिए है, क्योंकि उनमें एक शब्द नहीं, बल्कि एक से अधिक शब्द होते हैं। संयुक्त सर्वनाम स्वतन्त्र रूप से या संज्ञा-शब्दों के साथ भी प्रयुक्त होता है।
इसका उदाहरण कुछ इस प्रकार है- जो कोई, सब कोई, हर कोई, और कोई, कोई और, जो कुछ, सब कुछ, और कुछ, कुछ और, कोई एक, एक कोई, कोई भी, कुछ एक, कुछ भी, कोई-न-कोई, कुछ-न-कुछ, कुछ-कुछ, कोई-कोई इत्यादि।

सर्वनाम के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक)

सर्वनाम का रूपान्तर पुरुष, वचन और कारक की दृष्टि से होता है। इनमें लिंगभेद के कारण रूपान्तर नहीं होता। जैसे-
वह खाता है।
वह खाती है।
संज्ञाओं के समान सर्वनाम के भी दो वचन होते हैं- एकवचन और बहुवचन।
पुरुषवाचक और निश्र्चयवाचक सर्वनाम को छोड़ शेष सर्वनाम विभक्तिरहित बहुवचन में एकवचन के समान रहते हैं।
सर्वनाम में केवल सात कारक होते है। सम्बोधन कारक नहीं होता।
कारकों की विभक्तियाँ लगने से सर्वनामों के रूप में विकृति आ जाती है। जैसे-
मैं- मुझको, मुझे, मुझसे, मेरा; तुम- तुम्हें, तुम्हारा; हम- हमें, हमारा; वह- उसने, उसको उसे, उससे, उसमें, उन्होंने, उनको; यह- इसने, इसे, इससे, इन्होंने, इनको, इन्हें, इनसे; कौन- किसने, किसको, किसे।

सर्वनाम की कारक-रचना (रूप-रचना)

मैं (उत्तमपुरुष)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तामैं, मैंनेहम, हमने
कर्ममुझे, मुझकोहमें, हमको
करणमुझसेहमसे
सम्प्रदानमुझे, मेरे लिएहमें, हमारे लिए
अपादानमुझसेहमसे
सम्बन्धमेरा, मेरे, मेरीहमारा, हमारे, हमारी
अधिकरणमुझमें, मुझपरहममें, हमपर
तू (मध्यमपुरुष)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तातू, तूनेतुम, तुमने, तुमलोगों ने
कर्मतुझको, तुझेतुम्हें, तुमलोगों को
करणतुझसे, तेरे द्वारातुमसे, तुम्हारे से, तुमलोगों से
सम्प्रदानतुझको, तेरे लिए, तुझेतुम्हें, तुम्हारे लिए, तुमलोगों के लिए
अपादानतुझसेतुमसे, तुमलोगों से
सम्बन्धतेरा, तेरी, तेरेतुम्हारा-री, तुमलोगों का-की
अधिकरणतुझमें, तुझपरतुममें, तुमलोगों में-पर
वह (बहुवचन)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तावह, उसनेवे, उन्होंने
कर्मउसे, उसकोउन्हें, उनको
करणउससे, उसके द्वाराउनसे, उनके द्वारा
सम्प्रदानउसको, उसे, उसके लिएउनको, उन्हें, उनके लिए
अपादानउससेउनसे
सम्बन्धउसका, उसकी, उसकेउनका, उनकी, उनके
अधिकरणउसमें, उसपरउनमें, उनपर
आप(आदरसूचक)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताआपनेआपलोगों ने
कर्मआपकोआपलोगों को
करणआपसेआपलोगों से
सम्प्रदानआपको, के लिएआपलोगों को, के लिए
अपादानआपसेआपलोगों से
सम्बन्धआपका, की, केआपलोगों का, की, के
अधिकरणआप में, परआपलोगों में, पर
यह(निकटवर्ती)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तायह, इसनेये, इन्होंने
कर्मइसको, इसेये, इनको, इन्हें
करणइससेइनसे
सम्प्रदानइसे, इसकोइन्हें, इनको
अपादानइससेइनसे
सम्बन्धइसका, की, केइनका, की, के
अधिकरणइसमें, इसपरइनमें, इनपर
कोई (अनिश्र्चयवाचक)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताकोई, किसनेकिन्हीं ने
कर्मकिसी कोकिन्हीं को
करणकिसी सेकिन्हीं से
सम्प्रदानकिसी को, किसी के लिएकिन्हीं को, किन्हीं के लिए
अपादानकिसी सेकिन्हीं से
सम्बन्धकिसी का, किसी की, किसी केकिन्हीं का, किन्हीं की, किन्हीं के
अधिकरणकिसी में, किसी परकिन्हीं में, किन्हीं पर

सर्वनाम का पद-परिचय

सर्वनाम का पद-परिचय करते समय सर्वनाम, सर्वनाम का भेद, पुरुष, लिंग, वचन, कारक और अन्य पदों से उसका सम्बन्ध बताना पड़ता है।
उदाहरण- वह अपना काम करता है।
इस वाक्य में, 'वह' और 'अपना' सर्वनाम है। इनका पद-परिचय होगा-
वह- पुरुषवाचक सर्वनाम, अन्य पुरुष, पुलिंग, एकवचन, कर्ताकारक, 'करता है' क्रिया का कर्ता।
अपना- निजवाचक सर्वनाम, अन्यपुरुष, पुंलिंग, एकवचन, सम्बन्धकारक, 'काम' संज्ञा का विशेषण।

                                    क्रिया


क्रिया(Verb) की परिभाषा

जिन शब्दों से किसी काम के करने या होने का ज्ञान हो उसे क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस शब्द से किसी काम का करना या होना समझा जाय, उसे क्रिया कहते है।
जैसे- पढ़ना, खाना, पीना, जाना इत्यादि।

क्रिया के भेद

प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के प्रकार
(1)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)
(2)यौगिक क्रिया
(3)द्विकर्मक क्रिया(Double Transitive Verb)
(4)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)
(5) सहायक क्रिया(Helping Verb)
(6) नामबोधक क्रिया(Nominal Verb)
(7) पूर्वकालिक क्रिया(Absolutive Verb)
(1)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)-जिन क्रियाओ से इस बात का बोध हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वे प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है।
जैसे काटना से कटवाना, करना से कराना।
एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है-
मोहन मुझसे किताब लिखाता है।
इस वाक्य में मोहन (कर्ता) स्वयं किताब न लिखकर 'मुझे' दूसरे व्यक्ति को लिखने की प्रेरणा देता है।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप हैं। जैसे- 'गिरना' से 'गिराना' और 'गिरवाना' । दोनों क्रियाएँ एक के बाद दूसरी प्रेरणा में हैं। याद रखने वाली बात यह है कि अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक होने पर सकर्मक (कर्म लेनेवाली) हो जाती है। जैसे-
राम लजाता है।
वह राम को लजवाता है।
प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं से बनती हैं। ऐसी क्रियाएँ हर स्थिति में सकर्मक ही रहती हैं। जैसे- मैंने उसे हँसाया; मैंने उससे किताब लिखवायी। पहले में कर्ता अन्य (कर्म) को हँसाता है और दूसरे में कर्ता दूसरे को किताब लिखने को प्रेरित करता है। इस प्रकार हिन्दी में प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप चलते हैं। प्रथम में 'ना' का और द्वितीय में 'वाना' का प्रयोग होता है- हँसाना- हँसवाना।
मूलद्वितीय-तृतीय (प्रेरणा)
उठनाउठाना, उठवाना
उड़नाउड़ाना, उड़वाना
चलनाचलाना, चलवाना
देनादिलाना, दिलवाना
जीनाजिलाना, जिलवाना
लिखनालिखाना, लिखवाना
जगनाजगाना, जगवाना
सोनासुलाना, सुलवाना
पीनापिलाना, पिलवाना
देनादिलाना, दिलवाना
(2)यौगिक क्रिया- दो या दो से अधिक धातुअों और दूसरे शब्दों के संयोग से या धातुअों में प्रत्यय लगाने से जो क्रिया बनती है, उसे यौगिक क्रिया कहा जाता है।
जैसे- चलना-चलाना, हँसना-हँसाना।
(3)द्विकर्मक क्रिया (Double Transitive Verb)- जिस क्रिया के दो कर्म होते है उसे द्विकर्मक क्रिया कहते है।
कुछ क्रियाएँ एक कर्मवाली और दो कर्मवाली होती है। जैसे- राम ने रोटी खायी। इस वाक्य में कर्म एक ही है-
'रोटी' । किन्तु 'मैं लड़के को वेद पढ़ाता हूँ' इस वाक्य में दो कर्म हैं- 'लड़के को' और 'वेद' ।
(4)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)- जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।
जैसे- घनश्याम रो चुका, किशोर रोने लगा, वह घर पहुँच गया।
इन वाक्यों में 'रो चुका', 'रोने लगा' और 'पहुँच गया' संयुक्त क्रियाएँ हैं।
विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भित्र है, क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद 'हो', 'रो', 'सो', 'खा' इत्यादि धातुओं से बनते है, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ 'होना', 'आना', 'जाना', 'रहना', 'रखना', 'उठाना', 'लेना', 'पाना', 'पड़ना', 'डालना', 'सकना', 'चुकना', 'लगना', 'करना', 'भेजना', 'चाहना' इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।
इसके अतिरिक्त, सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से- लेट जाना, गिर पड़ना।
सकर्मक क्रिया से- बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना।
संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। जैसे- मैं पढ़ सकता हूँ। इसमें 'सकना' क्रिया 'पढ़ना' क्रिया के अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग अधिक होता है।

संयुक्त क्रिया के भेद

अर्थ के अनुसार संयुक्त क्रिया के ११ मुख्य भेद है-
(i) आरम्भबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरम्भ होने का बोध होता है, उसे 'आरम्भबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।
(ii) समाप्तिबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह 'समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह खा चुका है; वह पढ़ चुका है। धातु के आगे 'चुकना' जोड़ने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(iii) अवकाशबोधक- जिससे क्रिया को निष्पत्र करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह 'अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह मुश्किल से सोने पाया; जाने न पाया।
(iv) अनुमतिबोधक- जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह 'अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया 'देना' धातु के योग से बनती है।
(v) नित्यताबोधक- जिससे कार्य की नित्यता, उसके बन्द न होने का भाव प्रकट हो, वह 'नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- हवा चल रही है; पेड़ बढ़ता गया; तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे 'जाना' या 'रहना' जोड़ने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।
(vi) आवश्यकताबोधक- जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह 'आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- यह काम मुझे करना पड़ता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ 'पड़ना' 'होना' या 'चाहिए' क्रियाओं को जोड़ने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(vii) निश्र्चयबोधक- जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्र्चयता का बोध हो, उसे 'निश्र्चयबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह बीच ही में बोल उठा; उसने कहा- मैं मार बैठूँगा, वह गिर पड़ा; अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।
(viii) इच्छाबोधक- इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है।
जैसे- वह घर आना चाहता है; मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में 'चाहना' क्रिया जोड़ने से इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(ix) अभ्यासबोधक- इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में 'करना' क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
जैसे- यह पढ़ा करता है; तुम लिखा करते हो; मैं खेला करता हूँ।
(x) शक्तिबोधक- इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है।
जैसे- मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें 'सकना' क्रिया जोड़ी जाती है।

(xi) पुनरुक्त संयुक्त क्रिया- जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनिवाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें 'पुनरुक्त संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ा-लिखा करता है; वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है; पड़ोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।
(5) सहायक क्रिया (Helping Verb)- सहायक क्रियाएँ मुख्य क्रिया के साथ प्रयुक्त होकर अर्थ को स्पष्ट एवं पूर्ण करने में सहायक करती है। जैसे-
(i) मैं घर जाता हूँ। (यहाँ 'जाना' मुख्य क्रिया है और 'हूँ' सहायक क्रिया है)
(ii) वे हँस रहे थे। (यहाँ 'हँसना' मुख्य क्रिया है और 'रहे थे' सहायक क्रिया है)
(6) नामबोधक क्रिया (Nominal Verb)- संज्ञा अथवा विशेषण के साथ क्रिया जोड़ने से जो संयुक्त क्रिया बनती है, उसे 'नामबोधक क्रिया' कहते हैं।
जैसे-
संज्ञा+क्रिया=नामबोधक क्रिया
लाठी+मारना=लाठी मारना
रक्त+खौलना=रक्त खौलना
विशेषण+क्रिया=नामबोधक क्रिया
दुःखी+होना=दुःखी होना
पीला+पड़ना=पीला पड़ना
द्रष्टव्य- नामबोधक क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ नहीं हैं। संयुक्त क्रियाएँ दो क्रियाओं के योग से बनती है और नामबोधक क्रियाएँ संज्ञा अथवा विशेषण के मेल से बनती है। दोनों में यही अन्तर है।
(7) पूर्वकालिक क्रिया (Absolutive Verb)- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया 'पूर्वकालिक' कहलाती है।
जैसे- उसने नहाकर भोजन किया। इसमें 'नहाकर' पूर्वकालिक क्रिया है; क्योंकि इससे 'नहाने' की क्रिया की समाप्ति के साथ ही भोजन करने की क्रिया का बोध होता है।
रचना की दृष्टि से क्रिया के दो भेद है-
(1)सकमर्क क्रिया(Transitive Verb) (2 )अकर्मक क्रिया(Intransitive Verb)
(1)सकमर्क क्रिया :-वाक्य में जिस क्रिया के साथ कर्म भी हो, तो उसे सकमर्क क्रिया कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'सकर्मक क्रिया' उसे कहते है, जिसका कर्म हो या जिसके साथ कर्म की सम्भावना हो, अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का संचालन तो कर्ता से हो, पर जिसका फल या प्रभाव किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु, अर्थात कर्म पर पड़े।
दूसरे शब्दों में-जिस क्रिया का फल कर्म पर पड़े उसे सकमर्क क्रिया कहते है।
जैसे- बकरी घास खाती है, पिताजी अख़बार पढ़ते है।
उपयुक्त वाक्यों में 'खाती है' 'पढ़ते है' सकमर्क क्रियाये है। इनका फल 'घास' और 'अख़बार' पर पड़ रहा है जो कि कर्म है।
कभी-कभी सकर्मक क्रिया का कर्म छिपा रहता है। जैसे- वह गाता है; वह पढ़ता है। यहाँ 'गीत' और 'पुस्तक' जैसे कर्म छिपे हैं।
पहचान- क्रिया के साथ 'क्या' अथवा 'किसको' लगाने पर जो उत्तर आये वही 'कर्म' होता है

सकमर्क क्रिया दो प्रकार की होती है

(i) एककर्मक क्रिया (ii) द्विकर्मक क्रिया
(i) एककमर्क क्रिया :-जिस क्रिया का केवल एक ही कर्म होता है।
जैसे- विजय सेव खाया। (कर्म- सेव)
तुम स्कूल जाते हो। (कर्म- स्कूल )
(ii) द्विकर्मक क्रिया :- जिस सकमर्क क्रिया के दो कर्म होते है, उसे द्विकर्मक क्रिया कहते है।
जैसे- अध्यापक 'बच्चों' को व्याकरण पढ़ा रहे है।
गाय 'बछड़े' को 'दूध' पिलाती है।
(2)अकर्मक क्रिया :-वाक्य में जब क्रिया के साथ कर्म नही होता तो उस क्रिया को अकर्मक क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन क्रियाओं का व्यापार और फल कर्ता पर हो, वे 'अकर्मक' कहलाती हैं।
अकर्मक क्रियाओं का 'कर्म' नहीं होता, क्रिया का व्यापार और फल दूसरे पर न पकड़कर कर्ता पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए -
श्याम सोता है। इसमें 'सोना' क्रिया अकर्मक है। 'श्याम' कर्ता है, 'सोने' की क्रिया उसी के द्वारा पूरी होती है। अतः, सोने का फल भी उसी पर पड़ता है। इसलिए 'सोना' क्रिया अकर्मक है।
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान 'क्या', 'किसे' या 'किसको' आदि पश्र करने से होती है। यदि कुछ उत्तर मिले, तो समझना चाहिए कि क्रिया सकर्मक है और यदि न मिले तो अकर्मक होगी।
जैसे-
(i) 'राम फल खाता हैै।'
प्रश्न करने पर कि राम क्या खाता है, उत्तर मिलेगा फल। अतः 'खाना' क्रिया सकर्मक है।
(ii) 'सीमा रोती है।'
इसमें प्रश्न पूछा जाये कि 'क्या रोती है ?' तो कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः इस वाक्य में रोना क्रिया अकर्मक है।
उदाहरणार्थ- मारना, पढ़ना, खाना- इन क्रियाओं में 'क्या' 'किसे' लगाकर पश्र किए जाएँ तो इनके उत्तर इस प्रकार होंगे-
पश्र- किसे मारा ?
उत्तर- किशोर को मारा।
पश्र- क्या खाया ?
उत्तर- खाना खाया।
पश्र- क्या पढ़ता है।
उत्तर- किताब पढ़ता है।
इन सब उदाहरणों में क्रियाएँ सकर्मक है।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती है और प्रसंग अथवा अर्थ के अनुसार इनके भेद का निर्णय किया जाता है। जैसे-
मूलद्वितीय-तृतीय (प्रेरणा)
अकर्मकसकर्मक
उसका सिर खुजलाता है।वह अपना सिर खुजलाता है।
बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।मैं घड़ा भरता हूँ।
तुम्हारा जी ललचाता है।ये चीजें तुम्हारा जी ललचाती हैं।
जी घबराता है।विपदा मुझे घबराती है।
वह लजा रही है।वह तुम्हें लजा रही है।

                                 काल




काल (Tense) की परिभाषा

क्रिया के जिस रूप से कार्य करने या होने के समय का ज्ञान होता है उसे 'काल' कहते है।
दूसरे शब्दों में- क्रिया के उस रूपान्तर को काल कहते है, जिससे उसके कार्य-व्यापर का समय और उसकी पूर्ण अथवा अपूर्ण अवस्था का बोध हो।
जैसे-
(1) बच्चे खेल रहे हैं। मैडम पढ़ा रही हैं।
(2)बच्चे खेल रहे थे। मैडम पढ़ा रही थी।
(3)बच्चे खेलेंगे। मैडम पढ़ायेंगी।
पहले वाक्य में क्रिया वर्तमान समय में हो रही है। दूसरे वाक्य में क्रिया पहले ही समाप्त हो चुकी थी तथा तीसरे वाक्य की क्रिया आने वाले समय में होगी। इन वाक्यों की क्रियाओं से कार्य के होने का समय प्रकट हो रहा है।

काल के भेद-

काल के तीन भेद होते है-
(1)वर्तमान काल (present Tense) - जो समय चल रहा है।
(2)भूतकाल(Past Tense) - जो समय बीत चुका है।
(3)भविष्यत काल (Future Tense)- जो समय आने वाला है। 
(1) वर्तमान काल:- क्रिया के जिस रूप से वर्तमान में चल रहे समय का बोध होता है, उसे वर्तमान काल कहते है।
जैसे- वह खाता है।
सीता बातें कर रही है।
प्रियंका स्कूल जाती हैं।
वर्तमान कल की पहचान के लिए वाक्य के अन्त में 'ता, ती, ते, है, हैं' आदि आते है।

वर्तमान काल के भेद

वर्तमान काल के पाँच भेद होते है-
(i)सामान्य वर्तमान 
(ii)तत्कालिक वर्तमान 
(iii)पूर्ण वर्तमान 
(iv)संदिग्ध वर्तमान 
(v)सम्भाव्य वर्तमान
(i)सामान्य वर्तमान :-क्रिया का वह रूप जिससे क्रिया का वर्तमानकाल में होना पाया जाय, 'सामान्य वर्तमान' कहलाता है।
जैसे- वह आता है; वह देखता है।
(ii)तत्कालिक वर्तमान:-इससे यह पता चलता है कि क्रिया वर्तमानकाल में हो रही है।
जैसे- मै पढ़ रहा हूँ; वह जा रहा है।
(iii)पूर्ण वर्तमान :- इससे वर्तमानकाल में कार्य की पूर्ण सिद्धि का बोध होता है।
जैसे- वह आया है; सीता ने पुस्तक पढ़ी है।
(iv)संदिग्ध वर्तमान :- जिससे क्रिया के होने में सन्देह प्रकट हो, पर उसकी वर्तमानकाल में सन्देह न हो।
जैसे- राम खाता होगा; वह पढ़ता होगा।
(v)सम्भाव्य वर्तमान :-इससे वर्तमानकाल में काम के पूरा होने की सम्भवना रहती है।
जैसे- वह आया हो; वह लौटा हो।
(2)भूतकाल :- क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय का बोध होता है, उसे भूतकाल कहते है।
सरल शब्दों में- जिससे क्रिया से कार्य की समाप्ति का बोध हो, उसे भूतकाल की क्रिया कहते हैं।
जैसे- वह खा चुका था; राम ने अपना पाठ याद किया; मैंने पुस्तक पढ़ ली थी।
भूतकाल को पहचानने के लिए वाक्य के अन्त में 'था, थे, थी' आदि आते हैं।

भूतकाल के भेद

भूतकाल के छह भेद होते है-
(i)सामान्य भूत
(ii)आसन भूत
(iii)पूर्ण भूत 
(iv)अपूर्ण भूत
(v)संदिग्ध भूत
(vi)हेतुहेतुमद् भूत
(i)सामान्य भूत :- जिससे भूतकाल की क्रिया के विशेष समय का ज्ञान न हो।
जैसे- मोहन आया; सीता गयी।
(ii)आसन भूत :- इससे क्रिया की समाप्ति निकट भूत में या तत्काल ही सूचित होती है।
जैसे- मैने आम खाया है; मैं चला हूँ।
(iii)पूर्ण भूत :- क्रिया के उस रूप को पूर्ण भूत कहते है, जिससे क्रिया की समाप्ति के समय का स्पष्ट बोध होता है कि क्रिया को समाप्त हुए काफी समय बीता है।
जैसे- उसने श्याम को मारा था; वह आया था।
(iv)अपूर्ण भूत :- इससे यह ज्ञात होता है कि क्रिया भूतकाल में हो रही थी, किन्तु उसकी समाप्ति का पता नही चलता।
जैसे- सुरेश गीत गा रहा था; रीता सो रही थी।
(v)संदिग्ध भूत :- इसमें यह सन्देह बना रहता है कि भूतकाल में कार्य पूरा हुआ या नही।
जैसे- तुमने गाया होगा; तू गाया होगा।
(vi)हेतुहेतुमद् भूत :- इससे यह पता चलता है कि क्रिया भूतकाल में होनेवाली थी, पर किसी कारण न हो सका।
जैसे- मै आता; तू जाता; वह खाता।
(3)भविष्यत काल:-भविष्य में होनेवाली क्रिया को भविष्यतकाल की क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दो में- क्रिया के जिस रूप से काम का आने वाले समय में करना या होना प्रकट हो, उसे भविष्यतकाल कहते है।
जैसे- वह कल घर जाएगा।
हम सर्कस देखने जायेंगे।
किसान खेत में बीज बोयेगा।
भविष्यत काल की पहचान के लिए वाक्य के अन्त में 'गा, गी, गे' आदि आते है।

भविष्यत काल के भेद

भविष्यतकाल के तीन भेद होते है-
(i)सामन्य भविष्य 
(ii)सम्भाव्य भविष्य
(iii)हेतुहेतुमद्भविष्य।
(i)सामन्य भविष्य :- इससे यह प्रकट होता है कि क्रिया सामान्यतः भविष्य में होगी।
जैसे- मै पढ़ूँगा; वह घर जायेगा।
(ii)सम्भाव्य भविष्य :- जिससे भविष्य में किसी कार्य के होने की सम्भावना हो।
जैसे- यह सम्भव है; रमेश कल आया।

(iii)हेतुहेतुमद्भविष्य :- इसमे एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया के होने पर निर्भर करता है।
जैसे- वह आये तो मै जाऊ; वह कमाये तो मैं खाऊँ।

विशेषण(Adjective)की परिभाषा

जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम शब्द की विशेषता बताते है उन्हें विशेषण कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- जो किसी संज्ञा की विशेषता (गुण, धर्म आदि )बताये उसे विशेषण कहते है।
दूसरे शब्दों में- विशेषण एक ऐसा विकारी शब्द है, जो हर हालत में संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताता है।
जैसे- यह भूरी गाय है, आम खट्टे है।
उपयुक्त वाक्यों में 'भूरी' और 'खट्टे' शब्द गाय और आम (संज्ञा )की विशेषता बता रहे है। इसलिए ये शब्द विशेषण है।
इसका अर्थ यह है कि विशेषणरहित संज्ञा से जिस वस्तु का बोध होता है, विशेषण लगने पर उसका अर्थ सिमित हो जाता है। जैसे- 'घोड़ा', संज्ञा से घोड़ा-जाति के सभी प्राणियों का बोध होता है, पर 'काला घोड़ा' कहने से केवल काले घोड़े का बोध होता है, सभी तरह के घोड़ों का नहीं।
यहाँ 'काला' विशेषण से 'घोड़ा' संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित (सिमित) हो गयी है। कुछ वैयाकरणों ने विशेषण को संज्ञा का एक उपभेद माना है; क्योंकि विशेषण भी वस्तु का परोक्ष नाम है। लेकिन, ऐसा मानना ठीक नहीं; क्योंकि विशेषण का उपयोग संज्ञा के बिना नहीं हो सकता।
विशेष्य- जिस शब्द की विशेषता प्रकट की जाये, उसे विशेष्य कहते है।
जैसे- उपयुक्त विशेषण के उदाहरणों में 'गाय' और 'आम' विशेष्य है क्योंकि इन्हीं की विशेषता बतायी गयी है।
प्रविशेषण- कभी-कभी विशेषणों के भी विशेषण बोले और लिखे जाते है। जो शब्द विशेषण की विशेषता बताते है, वे प्रविशेषण कहलाते है।
जैसे- यह लड़की बहुत अच्छी है। मै पूर्ण स्वस्थ हुँ।
उपर्युक्त वाक्य में 'बहुत' 'पूर्ण' शब्द 'अच्छी' तथा 'स्वस्थ' (विशेषण )की विशेषता बता रहे ह, इसलिए ये शब्द प्रविशेषण है।

विशेषण के प्रकार

विशेषण निम्नलिखित पाँच प्रकार होते है -
(1)गुणवाचक विशेषण (Adjective of Quality)
(2)संख्यावाचक विशेषण (Adjective of Number)
(3)परिमाणवाचक विशेषण (Adjective of Quantity)
(4)संकेतवाचक विशेषण (Demonstractive Adjective)
(5)व्यक्तिवाचक विशेषण (Proper Adjective)
(1)गुणवाचक विशेषण :- जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम के गुण या दोष प्रकट करे, उसे गुणवाचक विशेषण कहते है।
जैसे- गुण- वह एक अच्छा आदमी है। रंग- काला टोपी, लाल रुमाल। आकार- उसका चेहरा गोल है। अवस्था- भूखे पेट भजन नहीं होता।
विशेषणों में इनकी संख्या सबसे अधिक है। इनके कुछ मुख्य रूप इस प्रकार हैं।
काल- नया, पुराना, ताजा, भूत, वर्तमान, भविष्य, प्राचीन, अगला, पिछला, मौसमी, आगामी, टिकाऊ।
स्थान- उजाड़, चौरस, भीतरी, बाहरी, उपरी, सतही, पूरबी, पछियाँ, दायाँ, बायाँ, स्थानीय, देशीय, क्षेत्रीय, असमी, पंजाबी, अमेरिकी, भारतीय।
आकार- गोल, चौकोर, सुडौल, समान, पीला, सुन्दर, नुकीला, लम्बा, चौड़ा, सीधा, तिरछा।
रंग- लाल, पीला, नीला, हरा, सफेद, काला, बैंगनी, सुनहरा, चमकीला, धुँधला, फीका।
दशा- दुबला, पतला, मोटा, भारी, पिघला, गाढ़ा, गीला, सूखा, घना, गरीब, उद्यमी, पालतू, रोगी।
गुण- भला, बुरा, उचित, अनुचित, सच्चा, झूठा, पापी, दानी, न्यायी, दुष्ट, सीधा, शान्त।
द्रष्टव्य- गुणवाचक विशेषणों में 'सा' सादृश्यवाचक पद जोड़कर गुणों को कम भी किया जाता है। जैसे- बड़ा-सा, ऊँची-सी, पीला-सा, छोटी-सी।
(2)संख्यावाचक विशेषण:-जिन शब्दों से किसी संज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध होता है, उन्हें संख्यावाचक विशेषण कहते है।
जैसे 'दो' केले, 'चार' घोड़े, 'तीस' दिन, 'कुछ' लोग, 'सब' लड़के इत्यादि।
यहाँ चार, तीस, कुछ, दो और सब- संख्यावाचक विशेषण हैं।

संख्यावाचक विशेषण के प्रकार

संख्यावाचक विशेषण दो प्रकार के होते है-
(i)निश्र्चित संख्यावाचक विशेषण (ii)अनिश्र्चित संख्यावाचक विशेषण
(i) निश्र्चित संख्यावाचक विशेषण :- जो विशेषण शब्द किसी निश्र्चित संख्या को प्रकट करें, वे निश्र्चित संख्यावाचक विशेषण होते है।
जैसे-'पाँच'आदमी 'चार' घोड़े, 'एक' लड़का, पचीस रुपये आदि।
(ii)अनिश्र्चित संख्यावाचक विशेषण :- जो विशेषण शब्द किसी अनिश्र्चित संख्या को प्रकट करे, वे अनिश्चित संख्यावाचक कहलाते है।
जैसे-'कुछ' फूल, 'बहुत-से' पेड़, 'सब' लोग।
प्रयोग के अनुसार निश्र्चित संख्यावाचक विशेषण के निम्नलिखित प्रकार हैं-
(क) गणनावाचक विशेषण- एक, दो, तीन।
(ख) क्रमवाचक विशेषण- पहला, दूसरा, तीसरा।
(ग) आवृत्तिवाचक विशेषण- दूना, तिगुना, चौगुना।
(घ) समुदायवाचक विशेषण- दोनों, तीनों, चारों।
(ड़) प्रत्येकबोधक विशेषण- प्रत्येक, हर-एक, दो-दो, सवा-सवा।
गणनावाचक संख्यावाचक विशेषण के भी दो भेद है-
(i) पूर्णांकबोधक विशेषण (ii) अपूर्णांकबोधक विशेषण
(i) पूर्णांकबोधक विशेषण- जैसे- एक, दो, चार, सौ, हजार।
(ii) अपूर्णांकबोधक विशेषण- जैसे- पाव, आध, पौन, सवा।
पूर्णांकबोधक विशेषण शब्दों में लिखे जाते है या अंकों में।
बड़ी-बड़ी निश्र्चित संख्याएँ अंकों में और छोटी-छोटी तथा बड़ी-बड़ी अनिश्र्चित संख्याएँ शब्दों में लिखनी चाहिए।
(3)परिमाणवाचक विशेषण :-जिन शब्दों से किसी संज्ञा या सर्वनाम शब्दों की परिमाण (नाप, तोल )का बोध हो, उन्हें परिमाणवाचक विशेषण कहते है। यह किसी वस्तु की नाप या तौल का बोध कराता है।
जैसे- 'सेर' भर दूध, 'तोला' भर सोना, 'थोड़ा' पानी, 'कुछ' पानी, 'सब' धन, 'और' घी लाओ, 'दो' लीटर दूध, 'बहुत' चीनी इत्यादि।

परिमाणवाचक विशेषण के प्रकार

(i) निश्र्चित परिमाणवाचक (ii)अनिश्र्चित परिमाणवाचक
(i) निश्र्चित परिमाणवाचक-:-जो विशेषण शब्द निश्र्चित नाप-तोल का बोध कराये, वे निश्र्चित परिमाणवाचक विशेषण होते है।
जैसे- 'दो सेर' घी, 'दस हाथ' जगह, 'चार गज' मलमल, 'चार किलो' चावल।
(ii)अनिश्र्चित परिमाणवाचक -जिन विशेषण शब्दों से किसी निश्र्चित नाप-तोल का बोध न हो, वे अनिश्र्चित परिमाणवाचक विशेषण कहलाते है।
जैसे- 'सब' धन, 'कुछ' दूध, 'बहुत' पानी।
(4)संकेतवाचक या सार्वनामिक विशेषण :- जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम की ओर संकेत करते है या जो शब्द सर्वनाम होते हुए भी किसी संज्ञा से पहले आकर उसकी विशेषता को प्रकट करें, उन्हें संकेतवाचक या सार्वनामिक विशेषण कहते है।
दूसरे शब्दों में- ( मैं, तू, वह ) के सिवा अन्य सर्वनाम जब किसी संज्ञा के पहले आते हैं, तब वे 'संकेतवाचक' या 'सार्वनामिक विशेषण' कहलाते हैं।
जैसे- वह नौकर नहीं आया; यह घोड़ा अच्छा है।
यहाँ 'नौकर' और 'घोड़ा' संज्ञाओं के पहले विशेषण के रूप में 'वह' और 'यह' सर्वनाम आये हैं। अतः, ये सार्वनामिक विशेषण हैं।
व्युत्पत्ति के अनुसार सार्वनामिक विशेषण के भी दो भेद है- (i) मौलिक सार्वनामिक विशेषण (ii) यौगिक सार्वनामिक विशेषण
(i) मौलिक सार्वनामिक विशेषण- जो बिना रूपान्तर के संज्ञा के पहले आता हैं। जैसे- 'यह' घर; वह लड़का; 'कोई' नौकर इत्यादि।
(ii) यौगिक सार्वनामिक विशेषण- जो मूल सर्वनामों में प्रत्यय लगाने से बनते हैं। जैसे- 'ऐसा' आदमी; 'कैसा' घर; 'जैसा' देश इत्यादि।
(5)व्यक्तिवाचक विशेषण:-जिन विशेषण शब्दों की रचना व्यक्तिवाचक संज्ञा से होती है, उन्हें व्यक्तिवाचक विशेषण कहते है।
जैसे- इलाहाबाद से इलाहाबादी, जयपुर से जयपुरी, बनारस से बनारसी। उदाहरण- 'इलाहाबादी' अमरूद मीठे होते है।
विशेष्य और विशेषण में सम्बन्ध
विशेषण संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता बताता है और जिस संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतायी जाती है, उसे विशेष्य कहते हैं।
वाक्य में विशेषण का प्रयोग दो प्रकार से होता है- कभी विशेषण विशेष्य के पहले आता है और कभी विशेष्य के बाद।
प्रयोग की दृष्टि से विशेषण के दो भेद है-
(1) विशेष्य-विशेषण (2) विधेय-विशेषण
(1) विशेष्य-विशेष- जो विशेषण विशेष्य के पहले आये, वह विशेष्य-विशेष होता है-
जैसे- रमेश 'चंचल' बालक है। सुनीता 'सुशील' लड़की है।
इन वाक्यों में 'चंचल' और 'सुशील' क्रमशः बालक और लड़की के विशेषण हैं, जो संज्ञाओं (विशेष्य) के पहले आये हैं।
(2) विधेय-विशेषण- जो विशेषण विशेष्य और क्रिया के बीच आये, वहाँ विधेय-विशेषण होता है;
जैसे- मेरा कुत्ता 'काला' हैं। मेरा लड़का 'आलसी' है। इन वाक्यों में 'काला' और 'आलसी' ऐसे विशेषण हैं,
जो क्रमशः 'कुत्ता'(संज्ञा) और 'है'(क्रिया) तथा 'लड़का'(संज्ञा) और 'है'(क्रिया) के बीच आये हैं।
यहाँ दो बातों का ध्यान रखना चाहिए- (क) विशेषण के लिंग, वचन आदि विशेष्य के लिंग, वचन आदि के अनुसार होते हैं। जैसे- अच्छे लड़के पढ़ते हैं। आशा भली लड़की है। राजू गंदा लड़का है।
(ख) यदि एक ही विशेषण के अनेक विशेष्य हों तो विशेषण के लिंग और वचन समीपवाले विशेष्य के लिंग, वचन के अनुसार होंगे; जैसे- नये पुरुष और नारियाँ, नयी धोती और कुरता।

विशेष्य-विशेषण

विशेष्य/संज्ञाविशेषणविशेष्य/संज्ञाविशेषण
कथनकथितराधाराधेय
तुंदतुंदिलगंगागांगेय
धनधनवानदीक्षादीक्षित
नियमनियमितनिषेधनिषिद्ध
प्रसंगप्रासंगिकपर्वतपर्वतीय
प्रदेशप्रादेशिकप्रकृतिप्राकृतिक
बुद्धबौद्धभूमिभौमिक
मृत्युमर्त्यमुखमौखिक
रसायनरासायनिकराजनीतिराजनीतिक
लघुलाघवलोभलुब्ध/लोभी
वनवन्यश्रद्धाश्रद्धेय/श्रद्धालु
संसारसांसारिकसभासभ्य
उपयोगउपयोगी/उपयुक्तअग्निआग्नेय
आदरआदरणीयअणुआणविक
अर्थआर्थिकआशाआशित/आशान्वित/आशावानी
ईश्वरईश्वरीयइच्छाऐच्छिक
इच्छाऐच्छिकउदयउदित
उन्नतिउन्नतकर्मकर्मठ/कर्मी/कर्मण्य
क्रोधक्रोधालु, क्रोधीगृहस्थगार्हस्थ्य
गुणगुणवान/गुणीघरघरेलू
चिंताचिंत्य/चिंतनीय/चिंतितजलजलीय
जागरणजागरित/जाग्रततिरस्कारतिरस्कृत
दयादयालुदर्शनदार्शनिक
धर्मधार्मिककुंतीकौंतेय
समरसामरिकपुरस्कारपुरस्कृत
नगरनागरिकचयनचयनित
निंदानिंद्य/निंदनीयनिश्र्चयनिश्चित
परलोकपारलौकिकपुरुषपौरुषेय
पृथ्वीपार्थिवप्रमाणप्रामाणिक
बुद्धिबौद्धिकभूगोलभौगोलिक
मासमासिकमातामातृक
राष्ट्रराष्ट्रीयलोहालौह
लाभलब्ध/लभ्यवायुवायव्य/वायवीय
विवाहवैवाहिकशरीरशारीरिक
सूर्यसौर/सौर्यहृदयहार्दिक
क्षेत्रक्षेत्रीयआदिआदिम
आकर्षणआकृष्टआयुआयुष्मान
अंतअंतिमइतिहासऐतिहासिक
उत्कर्षउत्कृष्टउपकारउपकृत/उपकारक
उपेक्षाउपेक्षित/उपेक्षणीयकाँटाकँटीला
ग्रामग्राम्य/ग्रामीणग्रहणगृहीत/ग्राह्य
गर्वगर्वीलाघावघायल
जटाजटिलजहरजहरीला
तत्त्वतात्त्विकदेवदैविक/दैवी
दिनदैनिकदर्ददर्दनाक
विनतावैनतेयरक्तरक्तिम

विशेषण की अवस्थायें या तुलना (Degree of Comparison)

विशेषण(Adjective) की तीन अवस्थायें होती है -
(i)मूलावस्था (Positive Degree)
(ii)उत्तरावस्था (Comparative Degree) 
(iii)उत्तमावस्था (Superlative Degree)
(i)मूलावस्था :-इस अवस्था में किसी विशेषण के गुण या दोष की तुलना दूसरी वस्तु से नही की जाती।
दूसरे शब्दों में- इसमे विशेषण अन्य किसी विशेषण से तुलित न होकर सीधे व्यक्त होता है।
जैसे- तुम 'सुन्दर' हो। वह अच्छी 'विद्याथी' है।
(ii)उत्तरावस्था :- यह विशेषण का वह रूप होता है, जो दो विशेष्यो की विशेषताओं से तुलना करता है।
इसमें विशेषण दो वस्तुओं की तुलना में होता है और उनमें किसी एक वस्तु के गुण या दोष अधिक बताये जाते हैं।
जैसे -तुम मेरे से 'अधिक सुन्दर' हो।
वह तुम से 'सबसे अच्छी' लड़की है।
राम मोहन से अधिक समझदार हैं।
(iii)उत्तमावस्था :- यह विशेषण का वह रूप है जो एक विशेष्य को अन्य सभी की तुलना में बढ़कर बताता है।
इसमें विशेषण द्वारा किसी वस्तु को सबसे अधिक गुणशाली या दोषी बताया जाता है।
जैसे- तुम 'सबसे सुन्दर' हो।
वह 'सबसे अच्छी' लड़की है।
हमारे कॉंलेज में नरेन्द्र 'सबसे अच्छा' खिलाड़ी है।
अन्य उदाहरण
मूलावस्थाउत्तरावस्थउत्तमावस्था
लघुलघुतरलघुतम
अधिकअधिकतरअधिकतम
कोमलकोमलतरकोमलतम
सुन्दरसुन्दरतरसुन्दरतम
उच्चउच्चतरउच्त्तम
प्रियप्रियतरप्रियतम
निम्रनिम्रतरनिम्रतम
निकृष्टनिकृष्टतरनिकृष्टतम
महत्महत्तरमहत्तम

विशेषण की रूप रचना

विशेषणों की रूप-रचना निम्नलिखित अवस्थाओं में मुख्यतः संज्ञा, सर्वनाम और क्रिया में प्रत्यय लगाकर होती है-
विशेषण की रचना पाँच प्रकार के शब्दों से होती है-
(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा से- गाजीपुर से गाजीपुरी, मुरादाबाद से मुरादाबादी, गाँधीवाद से गाँधीवादी।
(2) जातिवाचक संज्ञा से- घर से घरेलू, पहाड़ से पहाड़ी, कागज से कागजी, ग्राम से ग्रामीण, शिक्षक से शिक्षकीय, परिवार से पारिवारिक।
(3) सर्वनाम से- यह से ऐसा (सार्वनामिक विशेषण), यह से इतने (संख्यावाचक विशेषण), यह से इतना (परिमाणवाचक विशेषण), जो से जैसे (प्रकारवाचक विशेषण), जितने (संख्यावाचक विशेषण), जितना (परिमाणवाचक विशेषण), वह से वैसा (सार्वनामिक विशेषण), उतने (संख्यावाचक विशेषण), उतना (परिमाणवाचक विशेषण)।
(4) भाववाचक संज्ञा से- भावना से भावुक, बनावट से बनावटी, एकता से एक, अनुराग से अनुरागी, गरमी से गरम, कृपा से कृपालु इत्यादि।
(5) क्रिया से- चलना से चालू, हँसना से हँसोड़, लड़ना से लड़ाकू, उड़ना से उड़छू, खेलना से खिलाड़ी, भागना से भगोड़ा, समझना से समझदार, पठ से पठित, कमाना से कमाऊ इत्यादि।
कुछ शब्द स्वंय विशेषण होते है और कुछ प्रत्यय लगाकर बनते है। जैसे -
(1)'ई' प्रत्यय से = जापान-जापानी, गुण-गुणी, स्वदेशी, धनी, पापी।
(2) 'ईय' प्रत्यय से = जाति-जातीय, भारत-भारतीय, स्वर्गीय, राष्ट्रीय ।
(3)'इक' प्रत्यय से = सप्ताह-साप्ताहिक, वर्ष-वार्षिक, नागरिक, सामाजिक।
(4)'इन' प्रत्यय से = कुल-कुलीन, नमक-नमकीन, प्राचीन।
(5)'मान' प्रत्यय से = गति-गतिमान, श्री-श्रीमान।
(6)'आलु'प्रत्यय से = कृपा -कृपालु, दया-दयालु ।
(7)'वान' प्रत्यय से = बल-बलवान, धन-धनवान।
(8)'इत' प्रत्यय से = नियम-नियमित, अपमान-अपमानित, आश्रित, चिन्तित ।
(9)'ईला' प्रत्यय से = चमक-चमकीला, हठ-हठीला, फुर्ती-फुर्तीला।

विशेषण का पद-परिचय

विशेषण के पद-परिचय में संज्ञा और सर्वनाम की तरह लिंग, वचन, कारक और विशेष्य बताना चाहिए।
उदाहरण- यह तुम्हें बापू के अमूल्य गुणों की थोड़ी-बहुत जानकारी अवश्य करायेगा।
इस वाक्य में अमूल्य और थोड़ी-बहुत विशेषण हैं। इसका पद-परिचय इस प्रकार होगा-
अमूल्य- विशेषण, गुणवाचक, पुंलिंग, बहुवचन, अन्यपुरुष, सम्बन्धवाचक, 'गुणों' इसका विशेष्य।
थोड़ी-बहुत- विशेषण, अनिश्र्चित संख्यावाचक, स्त्रीलिंग, कर्मवाचक, 'जानकारी' इसका विशेष्य।

                                   अव्यय


अव्यय (Indeclinable)की परिभाषा


जिन शब्दों के रूप में लिंग, वचन, कारक आदि के कारण कोई परिवर्तन नही होता है उन्हें अव्यय(अ +व्यय) या अविकारी शब्द कहते है ।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'अव्यय' ऐसे शब्द को कहते हैं, जिसके रूप में लिंग, वचन, पुरुष, कारक इत्यादि के कारण कोई विकार उत्पत्र नही होता। ऐसे शब्द हर स्थिति में अपने मूलरूप में बने रहते है। चूँकि अव्यय का रूपान्तर नहीं होता, इसलिए ऐसे शब्द अविकारी होते हैं। इनका व्यय नहीं होता, अतः ये अव्यय हैं।
जैसे- जब, तब, अभी, उधर, वहाँ, इधर, कब, क्यों, वाह, आह, ठीक, अरे, और, तथा, एवं, किन्तु, परन्तु, बल्कि, इसलिए, अतः, अतएव, चूँकि, अवश्य, अर्थात इत्यादि।

अव्यय और क्रियाविशेषण


पण्डित किशोरीदास बाजपेयी के मतानुसार, अँगरेजी के आधार पर सभी अव्ययों को क्रियाविशेषण मान लेना उचित नही; क्योंकि कुछ अव्यय ऐसे हैं, जिनसे क्रिया की विशेषता लक्षित नहीं होती। जैसे- जब मैं भोजन करता हूँ, तब वह पढ़ने जाता हैं। इस वाक्य में 'जब' और 'तब' अव्यय क्रिया की विशेषता नहीं बताते। अतः, इन्हें क्रियाविशेषण नहीं माना जा सकता।
निम्नलिखित अव्यय क्रिया की विशेषता नहीं बताते-

(i) कालवाचक अव्यय- इनमें समय का बोध होता है। जैसे- आज, कल, तुरन्त, पीछे, पहले, अब, जब, तब, कभी-कभी, कब, अब से, नित्य, जब से, सदा से, अभी, तभी, आजकल और कभी। उदाहरणार्थ-
अब से ऐसी बात नहीं होगी।
ऐसी बात सदा से होती रही है।
वह कब आया, मुझे पता नहीं।

(ii) स्थानवाचक अव्यय- इससे स्थान का बोध होता है। जैसे- यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ, यहाँ से, वहाँ से, इधर-उधर। उदाहरणार्थ-
वह यहाँ नहीं है।
वह कहाँ जायेगा ?
वहाँ कोई नहीं है।
जहाँ तुम हो, वहाँ मैं हूँ।
(iii) दिशावाचक अव्यय- इससे दिशा का बोध होता है। जैसे- इधर, उधर, जिधर, दूर, परे, अलग, दाहिने, बाएँ, आरपार।
(iv) स्थितिवाचक अव्यय- नीचे,> नीचे, ऊपर तले, सामने, बाहर, भीतर इत्यादि।

अव्यय के भेद

अव्यय निम्नलिखित चार प्रकार के होते है -
(1) क्रियाविशेषण (Adverb)
(2)संबंधबोधक (Preposition)
(3)समुच्चयबोधक (Conjunction)
(4)विस्मयादिबोधक (Interjection)
(1) क्रियाविशेषण :- जिन शब्दों से क्रिया, विशेषण या दूसरे क्रियाविशेषण की विशेषता प्रकट हो, उन्हें 'क्रियाविशेषण' कहते है।
दूसरे शब्दो में- जो शब्द क्रिया की विशेषता बतलाते है, उन्हें क्रिया विशेषण कहा जाता है।
जैसे- राम धीरे-धीरे टहलता है; राम वहाँ टहलता है; राम अभी टहलता है।
इन वाक्यों में 'धीरे-धीरे', 'वहाँ' और 'अभी' राम के 'टहलने' (क्रिया) की विशेषता बतलाते हैं। ये क्रियाविशेषण अविकारी विशेषण भी कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त, क्रियाविशेषण दूसरे क्रियाविशेषण की भी विशेषता बताता हैं।
वह बहुत धीरे चलता है। इस वाक्य में 'बहुत' क्रियाविशेषण है; क्योंकि यह दूसरे क्रियाविशेषण 'धीरे' की विशेषता बतलाता है।

क्रिया विशेषण के प्रकार

(1) प्रयोग के अनुसार- (i) साधारण (ii) संयोजक (iii) अनुबद्ध
(2) रूप के अनुसार- (i) मूल क्रियाविशेषण (ii) यौगिक क्रियाविशेषण (iii) स्थानीय क्रियाविशेषण
(3) अर्थ के अनुसार- (i) परिमाणवाचक (ii) रीतिवाचक
(1) 'प्रयोग' के अनुसार क्रियाविशेषण के तीन भेद
(i) साधारण क्रियाविशेषण- जिन क्रियाविशेषणों का प्रयोग किसी वाक्य में स्वतन्त्र होता हैं, उन्हें 'साधारण क्रियाविशेषण' कहा जाता हैं।
जैसे- हाय! अब मैं क्या करूँ? बेटा, जल्दी आओ। अरे ! साँप कहाँ गया ?
(ii) संयोजक क्रियाविशेषण- जिन क्रियाविशेषणों का सम्बन्ध किसी उपवाक्य से रहता है, उन्हें ' संयोजक क्रियाविशेषण' कहा जाता हैं।
जैसे- जब रोहिताश्र्व ही नहीं, तो मैं ही जीकर क्या करूँगी ! जहाँ अभी समुद्र हैं, वहाँ किसी समय जंगल था।
(iii) अनुबद्ध क्रियाविशेषण- जिन क्रियाविशेषणों के प्रयोग अवधारण (निश्र्चय) के लिए किसी भी शब्दभेद के साथ होता हो, उन्हें 'अनुबद्ध क्रियाविशेषण' कहा जाता है।
जैसे- यह तो किसी ने धोखा ही दिया है। मैंने उसे देखा तक नहीं।
(2) रूप के अनुसार क्रियाविशेषण के तीन भेद
(i) मूल क्रियाविशेषण- ऐसे क्रियाविशेषण, जो किसी दूसरे शब्दों के मेल से नहीं बनते, 'मूल क्रियाविशेषण' कहलाते हैं।
जैसे- ठीक, दूर, अचानक, फिर, नहीं।
(ii) यौगिक क्रियाविशेषण- ऐसे क्रियाविशेषण,जो किसी दूसरे शब्द में प्रत्यय या पद जोड़ने पर बनते हैं, 'यौगिक क्रियाविशेषण' कहलाते हैं।
जैसे- मन से, जिससे, चुपके से, भूल से, देखते हुए, यहाँ तक, झट से, वहाँ पर। यौगिक क्रियाविशेषण संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, धातु और अव्यय के मेल से बनते हैं।
यौगिक क्रियाविशेषण नीचे लिखे शब्दों के मेल से बनते हैं-
(i) संज्ञाओं की द्विरुक्ति से- घर-घर, घड़ी-घड़ी, बीच-बीच, हाथों-हाथ।
(ii) दो भित्र संज्ञाओं के मेल से- दिन-रात, साँझ-सबेरे, घर-बाहर, देश-विदेश।
(iii) विशेषणों की द्विरुक्ति से- एक-एक, ठीक-ठीक, साफ-साफ।
(iv) क्रियाविशेषणों की द्विरुक्ति से- धीरे-धीरे, जहाँ-तहाँ, कब-कब, कहाँ-कहाँ।
(v) दो क्रियाविशेषणों के मेल से- जहाँ-तहाँ, जहाँ-कहीं, जब-तब, जब-कभी, कल-परसों, आस-पास।
(vi) दो भित्र या समान क्रियाविशेषणों के बीच 'न' लगाने से- कभी-न-कभी, कुछ-न-कुछ।
(vii) अनुकरण वाचक शब्दों की द्विरुक्ति से- पटपट, तड़तड़, सटासट, धड़ाधड़।
(viii) संज्ञा और विशेषण के योग से- एक साथ, एक बार, दो बार।
(ix) अव्य य और दूसरे शब्दों के मेल से- प्रतिदिन, यथाक्रम, अनजाने, आजन्म।
(x) पूर्वकालिक कृदन्त और विशेषण के मेल से- विशेषकर, बहुतकर, मुख़्यकर, एक-एककर।
(iii) स्थानीय क्रियाविशेषण- ऐसे क्रियाविशेषण, जो बिना रूपान्तर के किसी विशेष स्थान में आते हैं, 'स्थानीय क्रियाविशेषण' कहलाते हैं। जैसे- वह अपना सिर पढ़ेगा।
(3) 'अर्थ' के अनुसार क्रियाविशेषण के भेद
(i) परिमाणवाचक क्रियाविशेषण- जो शब्द क्रिया परिमाण या माप प्रकट करते है उन्हें 'परिमाणवाचक क्रियाविशेषण' कहते है।
जैसे -बहुत, थोड़ा, अधिक, कम, छोटा, कितना आदि
उदाहरण- आप अधिक बोलते हो।
यहाँ अधिक शब्द क्रिया (बोलने )की माप प्रकट करता है। इसलिए अधिक शब्द परिमाणवाचक क्रियाविशेषण है।
(क) अधिकताबोधक- बहुत, अति, बड़ा, बिलकुल, सर्वथा, खूब, निपट, अत्यन्त, अतिशय।
(ख) न्यूनताबोधक- कुछ, लगभग, थोड़ा, टुक, प्रायः, जरा, किंचित्।
(ग) पर्याप्तिवाचक- केवल, बस, काफी, यथेष्ट, चाहे, बराबर, ठीक, अस्तु।
(घ) तुलनावाचक- अधिक, कम, इतना, उतना, जितना, कितना, बढ़कर।
(ड़) श्रेणिवाचक- थोड़ा-थोड़ा, क्रम-क्रम से, बारी-बारी से, तिल-तिल, एक-एककर, यथाक्रम।
(ii) रीतिवाचक क्रियाविशेषण- जो शब्द क्रिया की रीती या ढंग बताते है उन्हें रीतिवाचक क्रियाविशेषण कहते है।
जैसे- सहसा, वैसे, ऐसे, अचानक आदि।
उदाहरण- कछुआ धीरे-धीरे चलता है।
यहाँ धीरे-धीरे शब्द क्रिया होने ढंग बता रहा है।
इस क्रियाविशेषण की संख्या गुणवाचक विशेषण की तरह बहुत अधिक है। ऐसे क्रियाविशेषण प्रायः निम्नलिखित अर्थों में आते हैं-
(क) प्रकार- ऐसे, वैसे, कैसे, मानो, धीरे, अचानक, स्वयं, स्वतः, परस्पर, यथाशक्ति, प्रत्युत, फटाफट।
(ख) निश्र्चय- अवश्य, सही, सचमुच, निःसन्देह, बेशक, जरूर, अलबत्ता, यथार्थ में, वस्तुतः, दरअसल।
(ग) अनिश्र्चय- कदाचित्, शायद, बहुतकर, यथासम्भव।
(घ) स्वीकार- हाँ, जी, ठीक, सच।
(ड़) कारण- इसलिए, क्यों, काहे को।
(च) निषेध- न, नहीं, मत।
(छ) अवधारण- तो, ही, भी, मात्र, भर, तक, सा।

कुछ समानार्थक क्रियाविशेषणों का अन्तर

(i) अब-अभी 'अब' में वर्तमान समय का अनिश्र्चय है और 'अभी' का अर्थ तुरन्त से है; जैसे-
अब- अब आप जा सकते हैं।
अब आप क्या करेंगे ?
अभी- अभी-अभी आया हूँ।
अभी पाँच बजे हैं। 
(ii) तब-फिर- अन्तर यह है कि 'तब' बीते हुए हमय का बोधक है और 'फिर' भविष्य की ओर संकेत करता है। जैसे-
तब- तब उसने कहा।
तब की बात कुछ और थी।
फिर- फिर आप भी क्या कहेंगे।
फिर ऐसा होगा।
'तब' का अर्थ 'उस समय' है और 'फिर' का अर्थ 'दुबारा' है।
'केवल' सदा उस शब्द के पहले आता है, जिसपर जोर देना होता है; लेकिन 'मात्र' 'ही', उस शब्द के बाद आता है।
(iii) कहाँ-कहीं- 'कहाँ' किसी निश्र्चित स्थान का बोधक है और 'कही' किसी अनिश्र्चित स्थान का परिचायक। कभी-कभी 'कही' निषेध के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है; जैसे-
कहाँ- वह कहाँ गया ?
मैं कहाँ आ गया ?
कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली!
कहीं- वह कहीं भी जा सकता है।
अन्य अर्थों में भी 'कही' का प्रयोग होता है-
(क) बहुत अधिक- यह पुस्तक उससे कहीं अच्छी है। (ख) कदाचित्- कहीं बाघ न आ जाय। (ग) विरोध- राम की माया, कहीं धूप कहीं छाया।
(iv) न-नहीं-मत- इनका प्रयोग निषेध के अर्थ में होता है। 'न' से साधारण-निषेध और 'नहीं' से निषेध का निश्र्चय सूचित होता है। 'न' की अपेक्षा 'नहीं' अधिक जोरदार है। 'मत' का प्रयोग निषेधात्मक आज्ञा के लिए होता है। जैसे-
'न'- इनके विभित्र प्रयोग इस प्रकार हैं-
(क) क्या तुम न आओगे ?
(ख) तुम न करोगे, तो वह कर देगा।
(ग) 'न' तुम सोओगे, न वह।
(घ) जाओ न, रुक क्यों गये ?
नहीं- (क) तुम नहीं जा सकते।
(ख) मैं नहीं जाऊँगा।
(ग) मैं काम नहीं करता।
(घ) मैंने पत्र नहीं लिखा।
मत- (क) भीतर मत जाओ।
(ख) तुम यह काम मत करो।
(ग) तुम मत गाओ।
(v) ही-भी- बात पर बल देने के लिए इनका प्रयोग होता है। अन्तर यह है कि 'ही' का अर्थ एकमात्र और 'भी' का अर्थ 'अतिरिक्त' सूचित करता है। जैसे-
भी- इस काम को तुम भी कर सकते हो।
ही- यह काम तुम ही कर सकते हो।
(vi) केवल-मात्र- 'केवल' अकेला का अर्थ और 'मात्र' सम्पूर्णता का अर्थ सूचित करता है; जैसे-
केवल- आज हम केवल दूध पीकर रहेंगे। यह काम केवल वह कर सकता है।
मात्र-, मुझे पाँच रूपये मात्र मिले।
(vii) भला-अच्छा- 'भला' अधिकतर विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है, पर कभी-कभी संज्ञा के रूप में भी आता है; जैसे- भला का भला फल मिलता है।
'अच्छा' स्वीकृतिमूलक अव्यय है। यह कभी अवधारण के लिए और कभी विस्मयबोधक के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे-
अच्छा, कल चला जाऊँगा।
अच्छा, आप आ गये !
(viii) प्रायः-बहुधा- दोनों का अर्थ 'अधिकतर' है, किन्तु 'प्रायः' से 'बहुधा की मात्रा अधिक होती है।
प्रायः- बच्चे प्रायः खिलाड़ी होते हैं।
बहुधा- बच्चे बहुधा हठी होते हैं।
(ix) बाद-पीछे- 'बाद' काल का और 'पीछे' समय का सूचक है। जैसे-
बाद- वह एक सप्ताह बाद आया।
पीछे- वह पढ़ने में मुझसे पीछे है।
(2)सम्बन्धबोधक अव्यय :- जो शब्द वाक्य में किसी संज्ञा या सर्वनाम के साथ आकर वाक्य के दूसरे शब्द से उनका संबन्ध बताये वे शब्द 'सम्बन्धबोधक अव्यय' कहलाते ।
दूसरे शब्दों में- जो अव्यय किसी संज्ञा के बाद आकर उस संज्ञा का सम्बन्ध वाक्य के दूसरे शब्द से दिखाते है, उसे 'सम्बन्धबोधक अव्यय' कहते हैं।
यदि यह संज्ञा न हो, तो वही अव्यय क्रियाविशेषण कहलायेगा।
जैसे- दूर, पास, अन्दर, बाहर, पीछे, आगे, बिना, ऊपर, नीचे आदि।
उदाहरण- वृक्ष के 'ऊपर' पक्षी बैठे है।
धन के 'बिना' कोई काम नही होता।
मकान के 'पीछे' गली है।
उपयुक्त प्रथम वाक्य में 'ऊपर' शब्द 'वृक्ष और 'पक्षी' के सम्बन्ध को दर्शता है।
दूसरे वाक्य में 'बिना' शब्द 'धन' और 'काम' में सम्बन्ध दर्शता है।
तीसरे वाक्य में 'पीछे' शब्द 'मकान' और 'गली' में सम्बन्ध दर्शाता है।
अतः 'ऊपर' 'बिना' 'पीछे' शब्द सम्बन्धबोधक है।
विशेष- यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि सम्बन्धबोधक शब्द को सम्बन्ध दर्शाना आवश्यक होता है। जब यह सम्बन्ध न जोड़कर साधारण रूप में प्रयोग होता है तो यह क्रिया-विशेषण का कार्य करता है। इस प्रकार एक ही शब्द क्रिया-विशेषण भी हो सकता है और सम्बन्धबोधक भी। जैसे-
सम्बन्धबोधकक्रिया-विशेषण
दुकान 'पर' ग्राहक खड़ा है।दुकान 'पर' खड़ा है।
मेज के 'ऊपर' किताबें है।मेज के 'ऊपर' है।

सम्बन्धबोधक के भेद

प्रयोग, अर्थ और व्युत्पत्ति के अनुसार सम्बन्धबोधक अव्यय के निम्नलिखित भेद है ।
(1) प्रयोग के अनुसार- (i) सम्बद्ध (ii) अनुबद्ध
(2) अर्थ के अनुसार- (i) कालवाचक (ii) स्थानवाचक (iii) दिशावाचक (iv) साधनवाचक (v) हेतुवाचक (vi) विषयवाचक (vii) व्यतिरेकवाचक (viii) विनिमयवाचक (ix) सादृश्यवाचक (x) विरोधवाचक (xi) सहचरवाचक (xii) संग्रहवाचक (xiii) तुलनावाचक
(3) व्युत्पत्ति के अनुसार- (i) मूल सम्बन्धबोधक (ii) यौगिक सम्बन्धबोधक
(1) प्रयोग के अनुसार सम्बन्धबोधक के भेद 
(i) सम्बद्ध सम्बन्धबोधक - ऐसे सम्बन्धबोधक शब्द संज्ञा की विभक्तियों के पीछे आते हैं। जैसे- धन के बिना, नर की नाई।
(ii) अनुबद्ध सम्बन्धबोधक- ऐसे सम्बन्धबोधकअव्यय संज्ञा के विकृत रूप के बाद आते हैं। जैसे- किनारे तक, सखियों सहित, कटोरे भर , पुत्रों समेत।
(2) अर्थ के अनुसार सम्बन्धबोधक के भेद 
(i) कालवाचक- आगे, पीछे, बाद, पहले, पूर्व, अनन्तर, पश्र्चात्, उपरान्त, लगभग।
(ii) स्थानवाचक- आगे, पीछे, नीचे, तले, सामने, पास, निकट, भीतर, समीप, नजदीक, यहाँ, बीच, बाहर, परे, दूर।
(iii) दिशावाचक- ओर, तरफ, पार, आरपार, आसपास, प्रति।
(iv) साधनवाचक- द्वारा, जरिए, हाथ, मारफत, बल, कर, जबानी, सहारे।
(v) हेतुवाचक- लिए, निमित्त, वास्ते, हेतु, खातिर, कारण, मारे, चलते।
(vi)विषयवाचक- बाबत, निस्बत, विषय, नाम, लेखे, जान, भरोसे।
(vii) व्यतिरेकवाचक- सिवा, अलावा, बिना, बगैर, अतिरिक्त, रहित।
(viii) विनिमयवाचक- पलटे, बदले, जगह, एवज।
(ix) सादृश्यवाचक- समान, तरह, भाँति, नाई, बराबर, तुल्य, योग्य, लायक, सदृश, अनुसार, अनुरूप, अनुकूल, देखादेखी, सरीखा, सा, ऐसा, जैसा, मुताबिक।
(x) विरोधवाचक- विरुद्ध, खिलाप, उलटे, विपरीत।
(xi) सहचरवाचक- संग, साथ, समेत, सहित, पूर्वक, अधीन, स्वाधीन, वश।
(xii) संग्रहवाचक- तक, लौं, पर्यन्त, भर, मात्र।
(xiii) तुलनावाचक- अपेक्षा, बनिस्बत, आगे, सामने।
(3) व्युत्पत्ति के अनुसार सम्बन्धबोधक के भेद 
(i) मूल सम्बन्धबोधक- बिना, पर्यन्त, नाई, पूर्वक इत्यादि।
(ii) यौगिक सम्बन्धबोधक- संज्ञा से- पलटे, लेखे, अपेक्षा, मारफत।
विशेषण से- तुल्य, समान, उलटा, ऐसा, योग्य।
क्रियाविशेषण से- ऊपर, भीतर, यहाँ, बाहर, पास, परे, पीछे।
क्रिया से- लिए, मारे, चलते, कर, जाने।
(3)समुच्चयबोधक अव्यय :-- जो अविकारी शब्द दो शब्दों, वाक्यों या वाक्यांशों को परस्पर मिलाते है, उन्हें समुच्चयबोधक कहते है।
दूसरे शब्दों में- ऐसा पद (अव्यय) जो क्रिया या संज्ञा की विशेषता न बताकर एक वाक्य या पद का सम्बन्ध दूसरे वाक्य या पद से जोड़ता है, 'समुच्चयबोधक' कहलाता है।
सरल शब्दो में- दो वाक्यों को परस्पर जोड़ने वाले शब्द समुच्चयबोधक अव्यय कहे जाते है।
जैसे- यद्यपि, चूँकि, परन्तु, और किन्तु आदि।
उदाहरण- आँधी आयी और पानी बरसा। यहाँ 'और' अव्यय समुच्चयबोधक है; क्योंकि यह पद दो वाक्यों- 'आँधी आयी', 'पानी बरसा'- को जोड़ता है।
समुच्चयबोधक अव्यय पूर्ववाक्य का सम्बन्ध उत्तरवाक्य से जोड़ता है।
इसी तरह समुच्चयबोधक अव्यय दो पदों को भी जोड़ता है। जैसे- दो और दो चार होते हैं।
राम 'और 'लक्ष्मण दोनों भाई थे।
मोहन ने बहुत परिश्रम किया परन्तु 'सफल' न सका।
उपयुक्त पहले वाक्य में 'और ' शब्दों को जोड़ रहा है तथा दूसरे वाक्य में 'परन्तु ' दो वाक्यांशों को जोड़ रहा है। अतः ये दोनों शब्द समुच्चयबोधक है।

समुच्चयबोधक के भेद

इस अव्यय के मुख्य भेद निम्नलिखित है-
(1) समानाधिकरण (2) व्यधिकरण
(1) समानाधिकरण- जिन पदों या अव्ययों द्वारा मुख्य वाक्य जोड़े जाते है, उन्हें 'समानाधिकरण समुच्चयबोधक' कहते है। इसके चार उपभेद हैं-
(i) संयोजक- जो शब्द, शब्दों या वाक्यों को जोड़ने का काम करते है, उन्हें संयोजक कहते है।
जैसे- जोकि, कि, तथा, व, एवं, और आदि।
उदाहरण -गीता ने इडली खायी 'तथा ' रीता डोसा खाया।
(ii) विभाजक- जो शब्द, विभिन्नता प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होते है, उन्हें विभाजक कहते है।
जैसे- या, वा, अथवा, किंवा, कि, चाहे, न.... न, न कि, नहीं तो, ताकि, मगर, तथापि, किन्तु, लेकिन आदि।
उदाहरण- कॉपी मिल गयी 'किन्तु' किताब नही मिली।
(iii)विकल्पसूचक- जो शब्द विकल्प का ज्ञान करायें, उन्हें 'विकल्पसूचक' शब्द कहते है।
जैसे- तो, न, अथवा, या आदि।
उदाहरण - मेरी किताब रमेश ने चुराई या राकेश ने। इस वाक्य में 'रमेश' और 'राकेश' के चुराने की क्रिया करने में विकल्प है।
(iv) विरोधदर्शक- पर, परन्तु, किन्तु, लेकिन, मगर, वरन, बल्कि।
(v) परिणामदर्शक- इसलिए, सो, अतः, अतएव।
(2) व्यधिकरण- जिन पदों या अव्ययों के मेल से एक मुख्य वाक्य में एक या अधिक आश्रित वाक्य जोड़े जाते है, उन्हें ' व्यधिकरण समुच्चयबोधक' कहते हैं। इसके चार उपभेद है।-
(i) कारणवाचक- क्योंकि, जोकि, इसलिए कि।
(ii) उद्देश्यवाचक- कि, जो, ताकि, इसलिए कि।
(iii) संकेतवाचक- जो-तो, यदि-तो, यद्यपि-तथापि, चाहे-परन्तु, कि।
(iv) स्वरूपवाचक- कि, जो, अर्थात, याने, मानो।
(4)विस्मयादिबोधक अव्यय :- जो शब्द आश्चर्य, हर्ष, शोक, घृणा, आशीर्वाद, क्रोध, उल्लास, भय आदि भावों को प्रकट करें, उन्हें 'विस्मयादिबोधक' कहते है।
दूसरे शब्दों में-जिन अव्ययों से हर्ष-शोक आदि के भाव सूचित हों, पर उनका सम्बन्ध वाक्य या उसके किसी विशेष पद से न हो, उन्हें 'विस्मयादिबोधक' कहते है।
इन अव्ययों के बाद विस्मयादिबोधक चिहन (!)लगाते है।
जैसे- हाय! अब मैं क्या करूँ ? हैं !तुम क्या कर रहे हो ? यहाँ 'हाय!' और 'है !'
अरे !पीछे हो जाओ, गिर जाओगे।
इस वाक्य में अरे !शब्द से भय प्रकट हो रहा है।
विस्मयादिबोधक अव्यय है, जिनका अपने वाक्य या किसी पद से कोई सम्बन्ध नहीं।
व्याकरण में विस्मयादिबोधक अव्ययों का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। इनसे शब्दों या वाक्यों के निर्माण में कोई विशेष सहायता नहीं मिलती। इनका प्रयोग मनोभावों को तीव्र रूप में प्रकट करने के लिए होता है। 'अब मैं क्या करूँ ? इस वाक्य के पहले 'हाय!' जोड़ा जा सकता है।
विस्मयादिबोधक के निम्नलिखित भेद हैं-
(i)हर्षबोधक- अहा!, वाह-वाह!,धन्य-धन्य, शाबाश!, जय, खूब आदि।
(ii)शोकबोधक- अहा!, उफ, हा-हा!, आह, हाय,त्राहि-त्राहि आदि।
(iii) आश्चर्यबोधक- वाह!, हैं!,ऐ!, क्या!, ओहो, अरे, आदि
(iv) क्रोधबोधक- हट, दूर हो, चुप आदि।
(v) स्वीकारबोधक- हाँ!, जी हाँ, जी, अच्छा, जी!, ठीक!, बहुत अच्छा! आदि।
(vi)सम्बोधनबोधक- अरे!, अजी!, लो, रे, हे आदि।
(vii)भयबोधक- अरे, बचाओ-बचाओ आदि।

निपात और उसके कार्य

यास्क के अनुसार 'निपात' शब्द के अनेक अर्थ है, इसलिए ये निपात कहे जाते हैं- उच्चावच्चेषु अर्थेषु निपतन्तीति निपाताः। यह पाद का पूरण करनेवाला होता है- 'निपाताः पादपूरणाः । कभी-कभी अर्थ के अनुसार प्रयुक्त होने से अनर्थक निपातों से अन्य सार्थक निपात भी होते हैं। निपात का कोई लिंग, वचन नहीं होता। मूलतः इसका प्रयोग अववयों के लिए होता है। जैसे अव्ययों में आकारगत अपरिवर्त्तनीयता होती है, वैसे ही निपातों में भी।
निपातों का प्रयोग निश्चित शब्द, शब्द-समूह या पूरे वाक्य को अन्य (अतिरिक्त) भावार्थ प्रदान करने के लिए होता है। निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य के अंग नही होते। पर वाक्य में इनके प्रयोग से उस वाक्य का समग्र अर्थ प्रभावित होता है।
निपात के भेद
यास्क ने निपात के तीन भेद माने है-
(1) उपमार्थक निपात : यथा- इव, न, चित्, नुः
(2) कर्मोपसंग्रहार्थक निपात : यथा- न, आ, वा, ह;
(3) पदपूरणार्थक निपात : यथा- नूनम्, खलु, हि, अथ।
यद्यपि निपातों में सार्थकता नहीं होती, तथापि उन्हें सर्वथा निरर्थक भी नहीं कहा जा सकता। निपात शुद्ध अव्यय नहीं है; क्योंकि संज्ञाओं, विशेषणों, सर्वनामों आदि में जब अव्ययों का प्रयोग होता है, तब उनका अपना अर्थ होता है, पर निपातों में ऐसा नहीं होता। निपातों का प्रयोग निश्र्चित शब्द, शब्द-समुदाय या पूरे वाक्य को अन्य भावार्थ प्रदान करने के लिए होता है। इसके अतिरिक्त, निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य के अंग नहीं हैं। पर वाक्य में इनके प्रयोग से उस वाक्य का सम्रग अर्थ व्यक्त होता है। साधारणतः निपात अव्यय ही है। हिन्दी में अधिकतर निपात शब्दसमूह के बाद आते हैं, जिनको वे बल प्रदान करते हैं।

निपात के कार्य

निपात के निम्नलिखित कार्य होते हैं-
(1) पश्र- जैसे : क्या वह जा रहा है ?
(2) अस्वीकृति- जैसे : मेरा छोटा भाई आज वहाँ नहीं जायेगा।
(3) विस्मयादिबोधक- जैसे : क्या अच्छी पुस्तक है !
(4) वाक्य में किसी शब्द पर बल देना- बच्चा भी जानता है।

निपात के प्रकार

निपात के नौ प्रकार या वर्ग हैं-
(1) स्वीकार्य निपात- जैसे : हाँ, जी, जी हाँ।
(2) नकरार्थक निपात- जैसे : नहीं, जी नहीं।
(3) निषेधात्मक निपात- जैसे : मत।
(4) पश्रबोधक- जैसे : क्या ? न।
(5) विस्मयादिबोधक निपात- जैसे : क्या, काश, काश कि।
(6) बलदायक या सीमाबोधक निपात- जैसे : तो, ही, तक, पर सिर्फ, केवल।
(7) तुलनबोधक निपात- जैसे : सा।
(8) अवधारणबोधक निपात- जैसे : ठीक, लगभग, करीब, तकरीबन।
(9) आदरबोधक निपात- जैसे : जी।

अव्यय का पद परिचय

इसमें अव्यय, अव्यय का भेद और उससे सम्बन्ध रखनेवाला पद- इतनी बातें लिखनी चाहिए।
उदाहरण- वह अभी आया है।
इसमें 'अभी' अव्यय है। इसका पदान्वय होगा-
अभी- कालवाचक अव्यय, 'आना' क्रिया का काल सूचित करता है, अतः 'आना' क्रिया का विशेषण।
उदाहरण- अहा ! आप आ गये।
अहा- हर्षबोधक अव्यय।
पद-परिचय के कुछ अन्य उदाहरण
उदाहरण (1) अच्छा लड़का कक्षा में शान्तिपूर्वक बैठता है।
अच्छा- गुणवाचक विशेषण, पुंलिंग, एकवचन, इसका विशेष्य 'लड़का' है।
लड़का- जातिवाचक संज्ञा, पुंलिंग, एकवचन, अन्यपुरुष, कर्ताकारक, 'बैठता है' क्रिया का कर्ता।
कक्षा में- जातिवाचक संज्ञा, स्त्रीलिंग, एकवचन, अधिकरणकारक।
शान्तिपूर्वक- रीतिवाचक क्रियाविशेषण, 'बैठता है' क्रिया का विशेषण।
बैठता है- अकर्मक क्रिया, कर्तृवाच्य, सामान्य वर्तमानकाल, पुंलिंग, एकवचन, अन्यपुरुष, इसका कर्ता लड़का है।
उदाहरण (2) मोहन अपने भाई सोहन को छड़ी से मारता है।
मोहन- व्यक्तिवाचक संज्ञा, अन्यपुरुष, पुंलिंग, एकवचन, कर्ताकारक, इसकी क्रिया है 'मारता है' ।
अपने- निजवाचक सर्वनाम, पुंलिंग, एकवचन, सम्बन्धकारक, 'भाई' से सम्बन्ध रखता है, सार्वनामिक विशेषण, इसका विशेष्य 'भाई' है।
भाई- जातिवाचक संज्ञा, पुंलिंग, एकवचन, कर्मकारक, 'सोहन' (कर्म) का विशेषण, 'मारता है' क्रिया का कर्म।
सोहन को- व्यक्तिवाचक संज्ञा, पुंलिंग, एकवचन, कर्मकारक, 'भाई' के अर्थ को प्रकट करता है अतः 'समानाधिकरण संज्ञा' ।
छड़ी से- जातिवाचक संज्ञा, स्त्रीलिंग, एकवचन, करणकारक।
मारता है- सकर्मक क्रिया, इसका कर्म 'भाई सोहन', सामान्य वर्तमानकाल, पुंलिंग, कर्तृवाच्य, अन्यपुरुष, इसका कर्ता 'मोहन' है।

                                    लिंग

लिंग(gender) की परिभाषा

"संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की नर या मादा जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में 'लिंग' कहते है।
दूसरे शब्दों में-संज्ञा शब्दों के जिस रूप से उसके पुरुष या स्त्री जाति होने का पता चलता है, उसे लिंग कहते है।
सरल शब्दों में- शब्द की जाति को 'लिंग' कहते है।
जैसे -पुरुष जाति- बैल, बकरा, मोर, मोहन, लड़का आदि।
स्त्री जाति- गाय, बकरी, मोरनी, मोहिनी, लड़की आदि।
'लिंग' संस्कृत भाषा का एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'चिह्न' या 'निशान'। चिह्न या निशान किसी संज्ञा का ही होता है। 'संज्ञा' किसी वस्तु के नाम को कहते है और वस्तु या तो पुरुषजाति की होगी या स्त्रीजाति की। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक संज्ञा पुंलिंग होगी या स्त्रीलिंग। संज्ञा के भी दो रूप हैं। एक, अप्रणिवाचक संज्ञा- लोटा, प्याली, पेड़, पत्ता इत्यादि और दूसरा, प्राणिवाचक संज्ञा- घोड़ा-घोड़ी, माता-पिता, लड़का-लड़की इत्यादि।
हिन्दी व्याकरण में लिंग के दो भेद होते है-
(1)पुलिंग(Masculine Gender)(2)स्त्रीलिंग( Feminine Gender)
(1) पुलिंग :- जिन संज्ञा शब्दों से पुरूष जाति का बोध होता है, उसे पुलिंग कहते है।
जैसे- सजीव- कुत्ता, बालक, खटमल, पिता, राजा, घोड़ा, बन्दर, हंस, बकरा, लड़का इत्यादि।
निर्जीव पदार्थ- मकान, फूल, नाटक, लोहा, चश्मा इत्यादि।
भाव- दुःख, लगाव, इत्यादि।
(2)स्त्रीलिंग :- जिस संज्ञा शब्द से स्त्री जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते है।
जैसे- सजीव- माता, रानी, घोड़ी, कुतिया, बंदरिया, हंसिनी, लड़की, बकरी,जूँ।
निर्जीव पदार्थ- सूई, कुर्सी, गर्दन इत्यादि।
भाव- लज्जा, बनावट इत्यादि।

पुल्लिंग की पहचान

(1) कुछ संज्ञाएँ हमेशा पुल्लिंग रहती है-
खटमल, भेड़या, खरगोश, चीता, मच्छर, पक्षी, आदि
(2) समूहवाचक संज्ञा- मण्डल, समाज, दल, समूह, वर्ग आदि
(3) भारी और बेडौल वस्तुअों के नाम- जूता, रस्सा, लोटा ,पहाड़ आदि।
(4) दिनों के नाम- सोमवार, मंगलवार, बुधवार, शनिवार आदि।
(5) महीनो के नाम- चैत, वैसाख, जनवरी, फरवरी आदि।
(6) पर्वतों के नाम- हिमालय, विन्द्याचल, सतपुड़ा आदि।
(7) देशों के नाम- भारत, चीन, इरान, अमेरिका आदि।
(8) नक्षत्रों, व ग्रहों के नाम- सूर्य, चन्द्र, राहू, शनि, आकाश, बृहस्पति, बुध आदि।
अपवाद- पृथ्वी
(9) धातुओं- सोना, तांबा, पीतल, लोहा, आदि
(10) वृक्षों,फलो के नाम- अमरुद, केला, शीशम, पीपल, आम आदि।
(11) अनाजों के नाम- चावल, चना, जौ, गेहूँ आदि।
(12) रत्नों के नाम- नीलम, पन्ना, मोती, हीरा आदि।
(13) फूलों के नाम- गेंदा, मोतिया, कमल, गुलाब आदि।
(14) देशों और नगरों के नाम- दिल्ली, लन्दन, चीन, रूस, भारत आदि।
(15) द्रव पदार्थो के नाम- शरबत, दही, दूध, पानी, तेल, घी आदि।
(16) आकारान्त संज्ञायें- गुस्सा, चश्मा, पैसा, छाता आदि।

स्त्रीलिंग की पहचान

(1) कुछ संज्ञाएँ हमेशा स्त्रीलिंग रहती है- मक्खी ,कोयल, मछली, तितली, मैना आदि।
(2) समूहवाचक संज्ञायें- भीड़, कमेटी, सेना, सभा, कक्षा आदि।
(3) प्राणिवाचक संज्ञा- धाय, सन्तान, सौतन आदि।
(4) छोटी और सुन्दर वस्तुअों के नाम- जूती, रस्सी, लुटिया, पहाड़ी आदि।
(5) नदियों के नाम- रावी, कावेरी, कृष्णा, गंगा आदि।
(6) भाषाओं व लिपियों के नाम- देवनागरी, अंग्रेजी, हिंदी, बंगाली आदि।
(7) पुस्तकों के नाम- कुरान, रामायण, गीता आदि।
(8) तिथियों के नाम- पूर्णिमा, अमावस्था, चतुर्थी, प्रथमा आदि।
(9) आहारों के नाम- सब्जी, दाल, कचौरी, पूरी, रोटी आदि।
अपवाद- हलुआ, अचार, रायता आदि।
(10) ईकारान्त वाले शब्द- नानी, बेटी, मामी, भाभी आदि।
(12) जिन शब्दों के अन्त में 'हट, वट, ता, आई, या' तथा 'आस' आये-
हट- कड़वाहट, बौखलाहट, घबराहट आदि।
वट- मिलावट, बनावट, सजावट आदि।
ता- शत्रुता, मित्रता, मूखर्ता आदि।
आई- बड़ाई, रजाई, मिठास, प्यास आदि।
या- छाया, माया, काया आदि।
आस- खटास, मिठास, प्यास आदि
नोट- हिन्दी भाषा में वाक्य रचना में क्रिया का रूप लिंग पर ही निर्भर करता है। यदि कर्ता पुल्लिंग है तो क्रिया रूप भी पुल्लिंग होता है तथा यदि कर्ता स्त्रीलिंग है तो क्रिया का रूप भी स्त्रीलिंग होता है।

लिंग-निर्णय

तत्सम (संस्कृत) शब्दों का लिंग-निर्णय

संस्कृत पुंलिंग शब्द
पं० कामताप्रसाद गुरु ने संस्कृत शब्दों को पहचानने के निम्नलिखित नियम बताये है-
(अ) जिन संज्ञाओं के अन्त में 'त्र' होता है। जैसे- चित्र, क्षेत्र, पात्र, नेत्र, चरित्र, शस्त्र इत्यादि।
(आ) 'नान्त' संज्ञाएँ। जैसे- पालन, पोषण, दमन, वचन, नयन, गमन, हरण इत्यादि।
अपवाद- 'पवन' उभयलिंग है।
(इ) 'ज'-प्रत्ययान्त संज्ञाएँ। जैसे- जलज,स्वेदज, पिण्डज, सरोज इत्यादि।
(ई) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में त्व, त्य, व, य होता है। जैसे- सतीत्व, बहूत्व, नृत्य, कृत्य, लाघव, गौरव, माधुर्य इत्यादि।
(उ) जिन शब्दों के अन्त में 'आर', 'आय', 'वा', 'आस' हो। जैसे- विकार, विस्तार, संसार, अध्याय, उपाय, समुदाय, उल्लास, विकास, ह्रास इत्यादि।
अपवाद- सहाय (उभयलिंग), आय (स्त्रीलिंग) ।
(ऊ) 'अ'-प्रत्ययान्त संज्ञाएँ। जैसे- क्रोध, मोह, पाक, त्याग, दोष, स्पर्श इत्यादि।
अपवाद- जय (स्त्रीलिंग), विनय (उभयलिंग) आदि।
(ऋ) 'त'-प्रत्ययान्त संज्ञाएँ। जैसे- चरित, गणित, फलित, मत, गीत, स्वागत इत्यादि।
(ए) जिनके अन्त में 'ख' होता है। जैसे- नख, मुख, सुख, दुःख, लेख, मख, शख इत्यादि।
संस्कृत स्त्रीलिंग शब्द
पं० कामताप्रसाद गुरु ने संस्कृत स्त्रीलिंग शब्दों को पहचानने के निम्नलिखित नियम बताये है-
(अ) आकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- दया, माया, कृपा, लज्जा, क्षमा, शोभा इत्यादि।
(आ) नाकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- प्रार्थना, वेदना, प्रस्तावना, रचना, घटना इत्यादि।
(इ) उकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- वायु, रेणु, रज्जु, जानु, मृत्यु, आयु, वस्तु, धातु इत्यादि।
अपवाद- मधु, अश्रु, तालु, मेरु, हेतु, सेतु इत्यादि।
(ई) जिनके अन्त में 'ति' वा 'नि' हो। जैसे- गति, मति, रीति, हानि, ग्लानि, योनि, बुद्धि, ऋद्धि, सिद्धि (सिध् +ति=सिद्धि) इत्यादि।
(उ) 'ता'-प्रत्ययान्त भाववाचक संज्ञाएँ। जैसे- न्रमता, लघुता, सुन्दरता, प्रभुता, जड़ता इत्यादि।
(ऊ) इकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- निधि, विधि, परिधि, राशि, अग्नि, छवि, केलि, रूचि इत्यादि।
अपवाद- वारि, जलधि, पाणि, गिरि, अद्रि, आदि, बलि इत्यादि।
(ऋ) 'इमा'- प्रत्ययान्त शब्द। जैसे- महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा इत्यादि।

तत्सम पुंलिंग शब्द

चित्र, पत्र, पात्र, मित्र, गोत्र, दमन, गमन, गगन, श्रवण, पोषण, शोषण, पालन, लालन, मलयज, जलज, उरोज, सतीत्व, कृत्य, लाघव, वीर्य, माधुर्य, कार्य, कर्म, प्रकार, प्रहार, विहार, प्रचार, सार, विस्तार, प्रसार, अध्याय, स्वाध्याय, उपहार, ह्रास, मास, लोभ, क्रोध, बोध, मोद, ग्रन्थ, नख, मुख, शिख, दुःख, सुख, शंख, तुषार, तुहिन, उत्तर, पश्र, मस्तक, आश्र्चर्य, नृत्य, काष्ट, छत्र, मेघ, कष्ट, प्रहर, सौभाग्य, अंकन, अंकुश, अंजन, अंचल, अन्तर्धान, अन्तस्तल, अम्बुज, अंश, अकाल, अक्षर, कल्याण, कवच, कायाकल्प, कलश, काव्य, कास, गज, गण, ग्राम, गृह, चन्द्र, चन्दन, क्षण, छन्द, अलंकार, सरोवर, परिमाण, परिमार्जन, संस्करण, संशोधन, परिवर्तन, परिशोध, परिशीलन, प्राणदान,
वचन, मर्म, यवन, रविवार, सोमवार, मार्ग, राजयोग, रूप, रूपक, स्वदेश, राष्ट, प्रान्त, नगर, देश, सर्प, सागर, साधन, सार, तत्त्व, स्वर्ग, दण्ड, दोष, धन, नियम, पक्ष, पृष्ट, विधेयक, विनिमय, विनियोग, विभाग, विभाजन, विऱोध, विवाद, वाणिज्य, शासन, प्रवेश, अनुच्छेद, शिविर, वाद, अवमान, अनुमान, आकलन, निमन्त्रण, नियंत्रण, आमंत्रण,उद्भव, निबन्ध, नाटक, स्वास्थ्य, निगम, न्याय, समाज, विघटन, विसर्जन, विवाह, व्याख्यान, धर्म, उपकरण, आक्रमण, श्रम,बहुमत, निर्माण, सन्देश, ज्ञापक, आभार, आवास, छात्रावास, अपराध, प्रभाव, लोक, विराम, विक्रम, न्याय, संघ, संकल्प इत्यादि।
तत्सम स्त्रीलिंग शब्द
दया, माया, कृपा, लज्जा, क्षमा, शोभा, सभा, प्रार्थना, वेदना, समवेदना, प्रस्तावना, रचना, घटना, अवस्था, नम्रता, सुन्दरता, प्रभुता, जड़ता, महिमा, गरिमा, कालिमा, लालिमा, ईष्र्या, भाषा, अभिलाषा, आशा, निराशा, पूर्णिमा, अरुणिमा, काया, कला, चपला, इच्छा, अनुज्ञा, आज्ञा, आराधना, उपासना, याचना, रक्षा, संहिता, आजीविका, घोषणा, परीक्षा, गवेषणा, नगरपालिका, नागरिकता, योग्यता, सीमा, स्थापना, संस्था, सहायता,मान्यता, व्याख्या, शिक्षा, समता, सम्पदा, संविदा, सूचना, सेवा, सेना, विज्ञप्ति, अनुमति, अभियुक्ति, अभिव्यक्ति, उपलब्धि, विधि, क्षति,
पूर्ति, विकृति, जाति, निधि, सिद्धि, समिति, नियुक्ति, निवृत्ति, रीति, शक्ति, प्रतिकृति, कृति, प्रतिभूति, प्रतिलिपि, अनुभूति, युक्ति, धृति, हानि, स्थिति, परिस्थिति, विमति, वृत्ति, आवृत्ति, शान्ति, सन्धि, समिति, सम्पत्ति, सुसंगति, कटि, छवि, रुचि, अग्नि, केलि, नदी, नारी, मण्डली, लक्ष्मी, शताब्दी, श्री, कुण्डली, कुण्डलिनी, कौमुदी, गोष्ठी, धात्री, मृत्यु, आयु, वस्तु, रज्जु, रेणु, वायु इत्यादि।

तद्भव (हिन्दी) शब्दों का लिंगनिर्णय

तद्भव शब्दों के लिंगनिर्णय में अधिक कठिनाई होती है। तद्भव शब्दों का लिंगभेद, वह भी अप्राणिवाचक शब्दों का, कैसे किया जाय और इसके सामान्य नियम क्या हों, इसके बारे में विद्वानों में मतभेद है। पण्डित कामताप्रसाद गुरु ने हिन्दी के तद्भव शब्दों को परखने के लिए पुंलिंग के तीन और स्त्रीलिंग के दस नियमों का उल्लेख अपने हिन्दी व्याकरण में किया है वे नियम इस प्रकार है-
तद्भव पुंलिंग शब्द
(अ) ऊनवाचक संज्ञाओं को छोड़ शेष आकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- कपड़ा, गत्रा, पैसा, पहिया, आटा, चमड़ा, इत्यादि।
(आ) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में ना, आव, पन, वा, पा, होता है। जैसे- आना, गाना, बहाव, चढाव, बड़प्पन, बढ़ावा, बुढ़ापा इत्यादि।
(इ) कृदन्त की आनान्त संज्ञाएँ। जैसे- लगान, मिलान, खान, पान, नहान, उठान इत्यादि।
अपवाद- उड़ान, चट्टान इत्यादि।
तद्भव स्त्रीलिंग शब्द
(अ) ईकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- नदी, चिट्ठी, रोटी, टोपी, उदासी इत्यादि।
अपवाद- घी, जी मोती, दही इत्यादि।
(आ) ऊनवाचक याकारान्त संज्ञाए। जैसे- गुड़िया, खटिया, टिबिया, पुड़िया, ठिलिया इत्यादि।
(इ) तकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- रात, बात, लात, छत, भीत, पत इत्यादि।
अपवाद- भात, खेत, सूत, गात, दाँत इत्यादि।
(ई) उकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- बालू, लू, दारू, ब्यालू, झाड़ू इत्यादि।
अपवाद- आँसू, आलू, रतालू, टेसू इत्यादि।
(उ) अनुस्वारान्त संज्ञाएँ। जैसे- सरसों, खड़ाऊँ, भौं, चूँ, जूँ इत्यादि।
अपवाद- गेहूँ।
(ऊ) सकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- प्यास, मिठास, निदास, रास (लगाम), बाँस, साँस इत्यादि।
अपवाद- निकास, काँस, रास (नृत्य) ।
(ऋ) कृदन्त नकारान्त संज्ञाएँ, जिनका उपान्त्य वर्ण अकारान्त हो अथवा जिनकी धातु नकारान्त हो। जैसे- रहन, सूजन, जलन, उलझन, पहचान इत्यादि।
अपवाद- चलन आदि।
(ए) कृदन्त की अकारान्त संज्ञाएँ। जैसे- लूट, मार,समझ, दौड़, सँभाल, रगड़, चमक, छाप, पुकारइत्यादि।
अपवाद- नाच, मेल, बिगाड़, बोल, उतार इत्यादि।
(ऐ) जिन भाववाचक संज्ञाओं के अन्त में ट, वट, हट, होता है। जैसे- सजावट, घबराहट, चिकनाहट, आहट, झंझट इत्यादि।
(ओ) जिन संज्ञाओं के अन्त में 'ख' होता है। जैसे- ईख, भूख, राख, चीख, काँख, कोख, साख, देखरेख इत्यादि।
अपवाद- पंख, रूख।

अर्थ के अनुसार लिंग-निर्णय

कुछ लोग अप्राणिवाचक शब्दों का लिंगभेद अर्थ के अनुसार करते है। पं० कामताप्रसाद गुरु ने इस आधार और दृष्टिकोण को 'अव्यापक और अपूर्ण' कहा है; क्योंकि इसके जितने उदाहरण है, प्रायः उतने ही अपवाद हैं। इसके अलावा, इसके जो थोड़े-से नियम बने हैं, उनमें सभी तरह के शब्द सम्मिलित नहीं होते। गुरुजी ने इस सम्बन्ध में जो नियम और उदाहरण दिये है, उनमें भी अपवादों की भरमार है। उन्होंने जो भी नियम दिये है, वे बड़े जटिल और अव्यवहारिक है।
यहाँ इन नियमों का उल्लेख किया जा रहा है-
(क) अप्राणिवाचक पुंलिंग हिन्दी शब्द
(i) शरीर के अवयवों के नाम पुंलिंग होते है। जैसे- कान, मुँह, दाँत, ओठ, पाँव, हाथ, गाल, मस्तक, तालु, बाल, अँगूठा, मुक्का, नाख़ून, नथना, गट्टा इत्यादि।
अपवाद- कोहनी, कलाई, नाक, आँख, जीभ, ठोड़ी, खाल, बाँह, नस, हड्डी, इन्द्रिय, काँख इत्यादि।
(ii) रत्नों के नाम पुंलिंग होते है। जैसे- मोती, माणिक, पत्रा, हीरा, जवाहर, मूँगा, नीलम, पुखराज, लाल इत्यादि।
अपवाद- मणि, चुत्री, लाड़ली इत्यादि।
(iii) धातुओं के नाम पुंलिंग होते है। जैसे- ताँबा, लोहा, सोना, सीसा, काँसा, राँगा, पीतल, रूपा, टीन इत्यादि।
अपवाद- चाँदी।
(iv) अनाज के नाम पुंलिंग होते है। जैसे- जौ, गेहूँ, चावल, बाजरा, चना, मटर, तिल इत्यादि।
अपवाद- मकई, जुआर, मूँग, खेसारी इत्यादि।
(v) पेड़ों के नाम पुंलिंग होते है। जैसे- पीपल, बड़, देवदारु, चीड़, आम, शीशम, सागौन, कटहल, अमरूद, शरीफा, नीबू, अशोक तमाल, सेब, अखरोट इत्यादि।
अपवाद-लीची, नाशपाती, नारंगी, खिरनी इत्यादि।
(vi) द्रव्य पदार्थों के नाम पुंलिंग होते हैं। जैसे- पानी, घी, तेल, अर्क, शर्बत, इत्र, सिरका, आसव, काढ़ा, रायता इत्यादि।
अपवाद- चाय, स्याही, शराब।
(vii) भौगोलिक जल और स्थल आदि अंशों के नाम प्रायः पुंलिंग होते है। जैसे- देश, नगर, रेगिस्तान, द्वीप, पर्वत, समुद्र, सरोवर, पाताल, वायुमण्डल, नभोमण्डल, प्रान्त इत्यादि।
अपवाद- पृथ्वी, झील, घाटी इत्यादि।
(ख) अप्राणिवाचक स्त्रीलिंग हिन्दी-शब्द
(i) नदियों के नाम स्त्रीलिंग होते है। जैसे- गंगा, यमुना, महानदी, गोदावरी, सतलज, रावी, व्यास, झेलम इत्यादि।
अपवाद- शोण, सिन्धु, ब्रह्यपुत्र नद है, अतः पुंलिंग है।
(ii) नक्षत्रों के नाम स्त्रीलिंग होते है। जैसे- भरणी, अश्र्विनी, रोहिणी इत्यादि।
अपवाद- अभिजित, पुष्य आदि।
(iii) बनिये की दुकान की चीजें स्त्रीलिंग है। जैसे- लौंग, इलायची, मिर्च, दालचीनी, चिरौंजी, हल्दी, जावित्री, सुपारी, हींग इत्यादि।
अपवाद- धनिया, जीरा, गर्म मसाला, नमक, तेजपत्ता, केसर, कपूर इत्यादि।
(iv) खाने-पीने की चीजें स्त्रीलिंग है। जैसे- कचौड़ी, पूरी, खीर, दाल, पकौड़ी, रोटी, चपाती, तरकारी, सब्जी, खिचड़ी इत्यादि।
अपवाद- पराठा, हलुआ, भात, दही, रायता इत्यादि।

प्रत्ययों के आधार पर तद्भव हिन्दी शब्दों का लिंग-निर्णय

हिन्दी के कृदन्त और तद्धित-प्रत्ययों में स्त्रीलिंग-पुंलिंग बनानेवाले अलग-अलग प्रत्यय इस प्रकार है-
स्त्रीलिंग कृदन्त-प्रत्यय- अ, अन्त,आई, आन, आवट, आस, आहट, ई, औती, आवनी, क, की, त, ती, नी इत्यादि। हिन्दी कृदन्त-प्रत्यय जिन धातु-शब्दों में लगे होते है, वे स्त्रीलिंग होते है। जैसे- लूट, चमक, देन, भिड़न्त, लड़ाई, लिखावट, प्यास, घबराहट, हँसी, मनौती, छावनी, बैठक, फुटकी, बचत, गिनती, करनी, भरनी।
द्रष्टव्य- इन स्त्रीलिंग कृदन्त-प्रत्ययों में अ, क, और न प्रत्यय कहीं-कहीं पुंलिंग में भी आते है और कभी-कभी इनसे बने शब्द उभयलिंग भी होते है। जैसे- 'सीवन' ('न'-प्रत्ययान्त) क्षेत्रभेद से दोनों लिंगों में चलता है। शोष सभी प्रत्यय स्त्रीलिंग है।
पुंलिंग कृदन्त-प्रत्यय- अक्कड़, आ, आऊ, आक, आकू, आप, आपा, आव, आवना, आवा, इयल, इया, ऊ, एरा, ऐया, ऐत, औता, औना, औवल, क, का, न, वाला, वैया, सार, हा इत्यादि हिन्दी कृदन्त-प्रत्यय जिन धातु-शब्दों में लगे है, वे पुंलिंग होते है। जैसे- पियक्कड़, घेरा, तैराक, लड़ाकू, मिलाप, पुजापा, घुमाव, छलावा, लुटेरा, कटैया, लड़ैत, समझौता, खिलौना, बुझौवल, घालक, छिलका, खान-पान, खानेवाला, गवैया।
द्रष्टव्य- (i) क और न कृदन्त-प्रत्यय उभयलिंग हैं। इन दो प्रत्ययों और स्त्रीलिंग प्रत्ययों को छोड़ शेष सभी पुंलिंग हैं। (ii)'सार' उर्दू का कृदन्त- प्रत्यय है, जो हिन्दी में फारसी से आया है मगर काफी प्रयुक्त है।
स्त्रीलिंग तद्धित-प्रत्यय- आई, आवट, आस, आहट, इन, एली, औड़ी, औटी, औती, की, टी, ड़ी, त, ती, नी, री, ल, ली इत्यादि। हिन्दी तद्धित-प्रत्यय जिन शब्दों में लगे होते है, वे स्त्रीलिंग होते है। जैसे- भलाई, जमावट, हथेली, टिकली, चमड़ी।
पुंलिंग तद्धित-प्रत्यय- आ, आऊ, आका, आटा, आना, आर, इयल, आल, आड़ी, आरा, आलू, आसा, ईला, उआ, ऊ, एरा, एड़ी, ऐत, एला, ऐला, ओटा, ओट, औड़ा, ओला, का, जा, टा, ड़ा, ता, पना, पन, पा, ला, वन्त, वान, वाला, वाँ, वा, सरा, सों, हर, हरा, हा, हारा, इत्यादि। हिन्दी तद्धित प्रत्यय जिन शब्दों में लगे होते है वे शब्द पुंलिंग होते है। जैसे- धमाका, खर्राटा, पैताना, भिखारी, हत्यारा, मुँहासा, मछुआ, सँपेरा, डकैत, अधेला, चमोटा, लँगोटा, हथौड़ा, चुपका, दुखड़ा, रायता, कालापन, बुढ़ापा, गाड़ीवान, टोपीवाला, छठा, दूसरा, खण्डहर, पीहर, इकहरा, चुड़िहारा।
द्रष्टव्य- (i) इया, ई, एर, एल, क तद्धित प्रत्यय उभयलिंग हैं। जैसे-
प्रत्ययपदतद्धित पद
इयामुखमुखिया(पुंलिंग)
खाटखटिया (ऊनवाचक)(स्त्रीलिंग)
डोरडोरी(स्त्रीलिंग)
एरमूँड़मुँड़ेर(स्त्रीलिंग)
अंधअँधेर(पुंलिंग)
एलफूलफुलेल(पुंलिंग)
नाकनकेल(स्त्रीलिंग)
पंचपंचक(पुंलिंग)
ठण्डठण्डक(स्त्रीलिंग)
(ii) विशेषण अपने विशेष्य के लिंग के अनुसार होता है। जैसे- 'ल' तद्धित-प्रत्यय संज्ञा-शब्दों में लगने पर उन्हें स्त्रीलिंग कर देता है, मगर विशेषण में- 'घाव+ल=घायल'- अपने विशेष्य के अनुसार होगा, अर्थात विशेष्य स्त्रीलिंग हुआ तो 'घायल' स्त्रीलिंग और पुंलिंग हुआ तो पुंलिंग।
(iii) 'क' तद्धित प्रत्यय स्त्रीलिंग है, किन्तु संख्यावाचक के आगे लगने पर उसे पुंलिंग कर देता है। जैसे- चौक, पंचक (पुंलिंग) और ठण्डक, धमक (स्त्रीलिंग)। 'आन' प्रत्यय भाववाचक होने पर शब्द को स्त्रीलिंग करता है, किन्तु विशेषण में विशेष्य के अनुसार। जैसे- लम्बा+आन=लम्बान (स्त्रीलिंग)।
(iv) अधिकतर भाववाचक और उनवाचक प्रत्यय स्त्रीलिंग होते है।

उर्दू शब्दों का लिंग-निर्णय

उर्दू से होते हुए हिन्दी में अरबी-फारसी के बहुत से शब्द आये है, जिनका व्यवहार हम प्रतिदिन करते है। इन शब्दों का लिंगभेद निम्नलिखित नियमों के अनुसार किया जाता है-
पुंलिंग उर्दू शब्द
(i) जिनके अन्त में 'आब' हो, वे पुंलिंग है। जैसे- गुलाब, जुलाब, हिसाब, जवाब, कबाब।
अपवाद- शराब, मिहराब, किताब, ताब, किमखाब इत्यादि।
(ii) जिनके अन्त में 'आर' या 'आन' लगा हो। जैसे- बाजार, इकरार, इश्तिहार, इनकार, अहसान, मकान, सामान, इम्तहान इत्यादि।
अपवाद- दूकान, सरकार, तकरार इत्यादि।
(iii) आकारान्त शब्द पुंलिंग है ; जैसे- परदा, गुस्सा, किस्सा, रास्ता, चश्मा, तमगा।
(मूलतः ये शब्द विसर्गात्मक हकारान्त उच्चारण के हैं। जैसे- परद:, तम्ग: । किन्तु हिन्दी में ये 'परदा', 'तमगा' के रूप में आकारान्त ही उच्चरित होते है।
अपवाद- दफा।
स्त्रीलिंग उर्दू शब्द
(i) ईकारान्त भाववाचक संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती है। जैसे- गरीबी, गरमी, सरदी, बीमारी, चालाकी, तैयारी, नवाबी इत्यादि।
(ii) शकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती है। जैसे- नालिश, कोशिश, लाश, तलाश, वारिश, मालिश इत्यादि।
अपवाद- ताश, होश आदि।
(iii) तकारन्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती है। जैसे- दौलत, कसरत, अदालत, इजाजत, कीमत, मुलाकात इत्यादि।
अपवाद- शरबत, दस्तखत, बन्दोबस्त, वक्त, तख्त, दरख्त इत्यादि।
(iv) आकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती है। जैसे- हवा, दवा, सजा, दुनिया, दगा इत्यादि।
अपवाद- मजा इत्यादि। 
(v) हकारान्त संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती हैं। जैसे- सुबह, तरह, राह, आह, सलाह, सुलह इत्यादि।
(vi) 'तफईल' के वजन की संज्ञाएँ स्त्रीलिंग होती है। जैसे- तसवीर, तामील, जागीर, तहसील इत्यादि।

अँगरेजी शब्दों का लिंगनिर्णय

विदेशी शब्दों में उर्दू (फारसी और अरबी)- शब्दों के बाद अँगरेजी शब्दों का प्रयोग भी हिन्दी में कम नहीं होता। जहाँ तक अँगरेजी शब्दों के लिंग-निर्णय का पश्र है, मेरी समझ से इसमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है; क्योंकि हिन्दी में अधिकतर अँगरेजी शब्दों का प्रयोग पुंलिंग में होता है। इस निष्कर्ष की पुष्टि नीचे दी गयी शब्दसूची से हो जाती है। अतः इन शब्दों के तथाकथित 'मनमाने प्रयोग' बहुत अधिक नहीं हुए है। मेरा मत है कि इन शब्दों के लिंगनिर्णय में रूप के आधार पर अकारान्त, आकारान्त, और ओकारान्त को पुंलिंग और ईकारान्त को स्त्रीलिंग समझना चाहिए।
फिर भी, इसके कुछ अपवाद तो हैं ही। अँगरेजी के 'पुलिस' (Police) शब्द के स्त्रीलिंग होने पर प्रायः आपत्ति की जाती है। मेरा विचार है कि यह शब्द न तो पुंलिंग है, न स्त्रीलिंग। सच तो यह है कि 'फ्रेण्ड' (Friend) की तरह उभयलिंग है। अब तो स्त्री भी 'पुलिस' होने लगी है। ऐसी अवस्था में जहाँ पुरुष पुलिस का काम करता हो, वहाँ 'पुलिस' पुंलिंग में और जहाँ स्त्री पुलिस का काम करेगी, वहाँ उसका व्यवहार स्त्रीलिंग में होना चाहिए। हिन्दी में ऐसे शब्दों की कमी नहीं है, जिनका प्रयोग दोनों लिंगों में अर्थभेद के कारण होता है। जैसे- टीका, हार, पीठ इत्यादि। ऐसे शब्दों की सूची आगे दी गयी है।
लिंगनिर्णय के साथ हिन्दी में प्रयुक्त होनेवाले अँगरेजी शब्दों की सूची निम्नलिखित है-
अँगरेजी के पुंलिंग शब्द
अकारान्त- ऑर्डर, आयल, ऑपरेशन, इंजिन, इंजीनियर, इंजेक्शन, एडमिशन, एक्सप्रेस, एक्सरे, ओवरटाइम, क्लास, कमीशन, कोट, कोर्ट, कैलेण्डर, कॉंलेज, कैरेम, कॉलर, कॉलबेल, काउण्टर, कारपोरेशन, कार्बन, कण्टर, केस, क्लिनिक, क्लिप, कार्ड, क्रिकेट, गैस, गजट, ग्लास, चेन, चॉकलेट, चार्टर, टॉर्च, टायर, ट्यूब, टाउनहाल, टेलिफोन, टाइम, टाइमटेबुल, टी-कप, टेलिग्राम, ट्रैक्टर, टेण्डर, टैक्स, टूथपाउडर, टिकट, डिवीजन, डान्स, ड्राइंग-रूम, नोट, नम्बर, नेकलेस, थर्मस, पार्क, पोस्ट, पोस्टर, पेन, पासपोर्ट, पेटीकोट, पाउडर, पेंशन, प्रोमोशन, प्रोविडेण्ट फण्ड,
पेपर, प्रेस, प्लास्टर, प्लग, प्लेट, पार्सल, प्लैटफार्म, फुटपाथ, फुटबॉल, फार्म, फ्रॉक, फर्म, फैन, फ्रेम, फुलपैण्ट, फ्लोर, फैशन, बोर्ड, बैडमिण्टन, बॉर्डर, बाथरूम, बुशशर्ट, बॉक्स, बिल, बोनस, बजट, बॉण्ड, बोल्डर, ब्रश, ब्रेक, बैंक, बल्ब, बम, मैच, मेल, मीटर, मनिआर्डर, रोड, रॉकेट, रबर, रूल, राशन, रिवेट, रिकार्ड, रिबन, लैम्प, लेजर, लाइसेन्स, वाउचर, वार्ड, स्टोर, स्टेशनर, स्कूल, स्टोव, स्टेज, स्लीपर, स्टेल, स्विच, सिगनल, सैलून, हॉल, हॉंस्पिटल, हेयर, हैण्डिल, लाइट, लेक्चर, लेटर।
अँगरेजी के स्त्रीलिंग शब्द
ईकारान्त- एसेम्बली, कम्पनी, केतली, कॉपी, गैलरी, डायरी, डिग्री, टाई, ट्रेजेडी, ट्रेजरी, म्युनिसिपैलिटी, युनिवर्सिटी, पार्टी, लैबोरेटरी।

लिंग-निर्णय के सामान्य नियम

(क) जिन शब्दों के अंत में त्व, ना, आ, आटा, आव, आवा, औरा, पन इत्यादि (कृदंत-तद्धित) प्रत्यय लगते हों, वे पुंलिंग होते है-
प्रत्ययपुंलिंग शब्द
त्वमहत्त्व
नापढ़ना, दिखाना
र्यशौर्य, वीर्य, माधुर्य
घेरा, फेरा, तोड़ा, जोड़ा, फोड़ा
आटासन्नाटा, खर्राटा
आपापुजापा, बुढ़ापा
आवजमाव, घुमाव, फैलाव, बचाव, बहाव
आवाबुलावा, चढ़ावा, दिखावा, भुलावा, पहनावा
औड़ाहथौड़ा, पकौड़ा
त्रचित्र, मित्र
पनबचपन, छुटपन, पागलपन, बड़प्पन
(ख) जिन शब्दों के अंत में आई, आवट, आस, आहट, इया, ई, त, नी, री, ली इत्यादि प्रत्यय लगते हों, वे स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-
प्रत्ययस्त्रीलिंग शब्द
आईमहँगाई, भलाई, बुराई, ढिलाई, चिकनाई, सिलाई, धुनाई, रुलाई
आवटरुकावट, मिलावट, गिरावट
आसप्यास (पिआस), मिठास
आहटघबराहट, बुलाहट
इयाडिबिया, टिकिया
हँसी, गरीबी, अमीरी, गुलामी, रस्सी, टोपी, गोटी, जूती
रंगत, चाहत, हजामत
नीघिरनी, चलनी, चटनी, खैनी
रीकोठरी, गठरी, छतरी
लीटिकली, डफली
(ग) संस्कृत (तत्सम) के अकारांत शब्द पुलिंग और आकारांत स्त्रीलिंग होते हैं। ऊपर उदाहरण दिये गये हैं।
जैसे- जल, स्वर्ण, लाभ, स्तंभ (पुलिंग), भिक्षा, शिक्षा, निन्द्रा, संध्या, परीक्षा, लज्जा (स्त्रीलिंग)
(घ) तद्धव (हिंदी) के लिंग प्रायः तत्सम (संस्कृत) के लिंग के अनुसार होते हैं। जैसे-
अकारांत तत्समलिंगहिंदी तद्धवअकारांत तत्समलिंगहिंदी तद्धव
आश्र्चर्यपुलिंगअचरजगोधूमपुलिंगगेहूँ
काष्ठपुलिंगकाठदुग्धपुलिंगदूध
स्नानपुलिंगनहानवंध्यास्त्रीलिंगबाँझ
स्तंभपुलिंगखंभा, खंभसंध्यास्त्रीलिंगसाँझ
कटाहपुलिंगकड़ाहनासिकास्त्रीलिंगनाक
चत्वरपुलिंगचबूतरानिन्द्रास्त्रीलिंगनींद
स्वर्णपुलिंगसोनापरीक्षास्त्रीलिंगपरख
जीवपुलिंगजीहरिद्रास्त्रीलिंगहरदी
कर्पटपुलिंगकपड़ाभिक्षास्त्रीलिंगभीख
पर्यकपुलिंगपलंगशय्यास्त्रीलिंगसेज
आम्रपुलिंगआमशिक्षास्त्रीलिंगसीख
पौत्रपुलिंगपोतालौहस्त्रीलिंगलोहा
(ड़) हिंदी की द्रव्यवाचक संज्ञाएँ पुलिंग होती हैं। जैसे- लोहा, चूना, मोती, दही, घी, तेल, सोना इत्यादि। अपवाद- चाँदी स्त्रीलिंग है।
(च) लिंग-निर्णय का सबसे सरल नियम यह है कि जिस अकारांत शब्द का लिंग जानना हो, उसका कर्ता में बहुवचन-रूप बनाकर देखा जाय। यदि बहुवचन में एकारांतता के साथ अनुनासिकता है (अर्थात अंतिम स्वर पर चंद्रबिंदु या अनुस्वार लगता हो) तो वह स्त्रीलिंग है। यदि अप्रत्यय एकवचन-रूप और बहुवचन-रूप में कोई अंतर नहीं है तो वह शब्द पुलिंग है, अर्थात यदि बहुवचन में एकार के साथ अनुनासिकता नहीं है, तो वह शब्द पुलिंग है। जैसे-
राम के चार भवन हैं (पुलिंग)
राम के वचन सुने (पुलिंग)
श्याम के चार पुत्र है। (पुलिंग)
ये चार इमारतें राम की हैं (स्त्रीलिंग)
राम की बातें हुई। (स्त्रीलिंग)
मैंने कोशिशें की (स्त्रीलिंग)

लिंगकोश

(पुलिंग शब्द)(Masculine)

अ- अरमान, अनार, अदरख, अपराध, अनाज, अनुसार, अनुसरण, अबरब, अबीर, अन्वय, अमृत, अपरिग्रह, अपहरण, अनुदान, अनुमोदन, अनुसन्धान, अपयश, अक्षत, अणु, अकाल, अक्षर, अनुच्छेद, अखरोट।
आ- आलस्य, आचार, आईना, आचरण, आखेट, आभार, आलू, आवेश, आविर्भाव, आश्रम, आश्र्वासन, आसन, आषाढ़, आस्वादन, आहार, आसव, आशीर्वाद, आकाश, आयोग, आटा, आमंत्रण, आक्रमण, आरोप, आयात, आयोजन, आरोपण, आलोक, आवागमन, आविष्कार।
अं, अँ, आँ- अंधड़, अंगूर, अंक, अंबार, अंकुश, अंगार, अंतरिक्ष, अंतर्धान, अंतस्तल, अंबुज, अंश, अंजन, अंचल, अंकन, अंगुल, अंकगणित, अंतःपुर, अंतःकरण, अँधेरा, अंधेर, अंबर, अंशु, आँसू।
ओ, औ- ओठ, ओल, ओला, औजार, औसत।
इ, ई- इजलास, इन्द्रासन, इकतारा, इलाका, इजहार, इनाम, इलाज, इस्तीफा, इस्पात, इस्तेमाल, इन्तजार, इन्साफ, इलजाम, इत्र, ईंधन।
उ, ऊ- उद्धार, उतार, उपवास, उफान, उबटन, उबाल, उलटफेर, उपादान, उपकरण, उत्पादन, उत्कर्ष, उच्छेदन, उत्तरदायित्व, उत्तरीय, उत्ताप, उत्साह, उत्सर्ग, उदय, उद्गार, उद्घाटन, उद्धरण, उद्यम, उन्माद, उन्मूलन, उपकार, उपक्रम, उपग्रह, उपचार, उपनयन, उपसर्ग, उपहास, उपाख्यान, उपालंभ, उल्लंघन, उल्लास, उल्लू, उल्लेख, ऊख, ऊन, ऊखल, ऊधम।
क- कण्ठ, कपूर, कर्म, कम्बल, कलंक, कपाट, कछार, कटहल, कफन, कटोरा, कड़ाह, कलह, कक्ष, कच्छा, कछुआ, कटिबन्ध, कदम्ब, कनस्तर, कफ, कबाब, कब्ज, करकट, करतल, कर्णफूल, करार, करेला, कलाप, कलेवर, कल्प, कल्याण, कल्लोल, कवच।
का- काग, काजल, काठ, कार्तिक, काँच (शीशा), कानन, कार्य, कायाकल्प।
कि, की- कित्रर, किमाम, किसलय, कीर्तन, कीचड़।
कु, कू- कुँआ, कुटीर, कुतूहल, कुमुद, कुल, कुहासा, कुशल, कुष्ट, कूड़ा।
के, को, कौ- केवड़ा, केंकड़ा, केराव, केशर, केश, कोटर, कोल्हू, कोढ़, कोदो, कीप, कोष(श), कोहनूर, कोष्ठ, कोट, कौतूहल, कौर, कौआ,कौशल।
ख- खँडहर, खजूर, खटका, खटमल, खपड़ा, खरगोश, खरबूजा, खराद (यन्त्र), खर्राटा, खलिहान, खाँचा, खाका, खान(पठान), खान-पान, खार, खिंचाव, खीर-मोहन, खीरा, खुमार, खुदरा, खुर, खुलासा, खूँट(छोर), खूँटा, खेमा, खेल, खेलवाड़, खोंचा, खोआ।
ग- गंजा, गन्धक, गन्धराज, गगन, गज, गजट, गजब, गठबन्धन, गढ़, गदर, गद्य, गबन, गमन, गरुड़, गर्जन, गर्व, गर्भाशय, गलसुआ, गलियारा, गलीचा, गश, गाँजा, गार्हस्थ्य, गिरजा, गिरगिट, गड्ढा, गुणगान, गोदाम, गुनाह, गुंजार, गुलाब, गुलाम, गिला, गूदा, गोंद, गेंद, गोत्र, गोधन, गोलोक, गौरव, ग्रह, ग्रीष्म, ग्रहण, ग्रास, गिलाफ, गिद्ध।
घ- घट, घटाटोप, घटाव, घड़ा, घड़ियाल, घन, घराना, घपला, घर्षण, घाघरा, घाघ, घाटा, घात (चोट), घाव, घी, घुँघरू, घुटना, घुन, घुमाव, घूँघट, घूँट, घृत, घेघा, घोंघा, घोटाला, घोल।
च- चंगुल, चण्डमुण्ड, चन्दन, चन्द्रमा, चन्दनहार, चन्द्रबिन्दु, चन्द्रहार, चन्द्रोदय, चकमा, चकला, चकवा, चकोर, चक्कर, चक्र, चक्रव्यूह, चटावन, चढाव, चढ़ावा, चप्पल, चमगादड़, चमत्कार, चमर, चम्मच, चम्पक, चयन, चर्खा, चरागाह, चर्स, चलचित्र, चलन, चालान, चषक, चाँटा, चाँद, चाक, चातक, चातुर्य, चाप (धनुष), चाबुक, चाम, चरण, चाकू, चाव, चिन्तन, चित्रकूट, चित्रपट, चिरकुट, चिराग, चीता, चीत्कार, चीर, चीलर, चुम्बक, चुम्बन, चुनाव, चुल्लू, चैन, चोकर, चौक, चौपाल।
छ- छन्द, छछूँदर, छज्जा, छटपट, छत्ता, छत्र, छप्पर, छलछन्द, छाजन, छार, छिद्र, छिपाव, छींटा, छेद, छोआ, छोर।
ज- जख्म, जमघट, जहाज, जंजाल, जन्तु, जड़ाव, जत्था, जनपद, जनवासा, जप, जमाव, जलधर, जलपथ, जलपान, जाँता, जाकड़, जाम, जाप, जासूस, जिक्र, जिगर, जिन, जिहाद, जी, जीरा, जीव, ज्वारभाटा, जुआ, जुकाम, जुर्म, जुलाब, जुल्म, जुलूस, जूड़ा, जेठ, जेल, जौ, जैतून, जोश, ज्वर।
झ- झंझा, झंझावात, झकझोर, झकोर, झाड़ (झाड़ी), झंखाड़, झाल (बाजा), झींगुर, झुण्ड, झुकाव, झुरमुट, झूमर।
ट- टण्टा, टमटम, टकुआ, टाट, टापू, टिकट, टिकाव, टिफिन, टीन, टमाटर, टैक्स।
ठ- डंक, डंड, डण्डा, डब्बा, डमरू, डर, डीह, डोल, डेरा।
ढ- ढक्कन, ढेला, ढाँचा, ढोंग, ढाढस, ढंग, ढोल, ढकना, ढिंढोरा, ढोंग, ढेर।
त- तम्बाकू, तम्बूरा, तकिया, तन, तनाव, तप, तबला, तमंचा, तरकश, तरबूज, तराजू, तल, ताण्डव, ताज, तार, ताला, तालाब, ताश, त्रिफला, तिल, तिलक, तिलकुट, तीतर, तीर, तीर्थ, तेजाब, तेल, तेवर, तोड़-जोड़, तोड़-फोड़, तौल, तौलिया, त्रास, तख्ता, तंत्र।
थ- थन, थप्पड़, थल, थूक, थोक, थाना, थैला।
द- दंड, दबाव, दर्जा, दर्शन, दरबार, दहेज, दाँत, दाग, दाम, दही, दिन, दिमाग, दिल, दीपक, दीया, दुःख, दुशाला, दूध, दृश्य, देहात, देश, द्वार, द्वीप, दर्द, दुखड़ा, दुपट्टा, दंश, दफा, दालान, दलाल, दानव, दाय, दास, दिखाया, दिमाग, दिल, दीपक, दुलार, दुशाला, दूध, दृश्य, दैत्य, दोष, दौरान, द्वार, द्वीप, द्वेष, दफ्तर।
ध- धन्धा, धक्का, धड़, धन, धनुष, धर्म, धान, धाम, धैर्य, ध्यान, धनिया, धुआँ।
न- नकद, नक्षत्र, नग, ननिहाल, नभ, नगर, नमक, नसीब, नरक, नल, नाख़ून, निबाह, नियम, निर्झर, निगम, निवास, निवेदन, निशान, निष्कर्ष, नीबू, नीर, नीलम, नीलाम, नृत्य, नेत्र, नैवेद्य, न्याय, नमस्कार, नक्शा, नगीना, नशा, न्योता।
प-पंक्षी, पकवान, पक्ष, पक्षी, पत्र, पड़ोस, पतंग, पनघट, पतलून, पतन, पत्थर, पद, पदार्थ, पनीर, पपीहा, पर्दा, परमाणु, परलोक, पराग, परिचय, परिणाम, परिवर्तन, परिवार, पर्व, पल्लव, पहर, पहिया, पाखण्ड, पाचन, पाताल, पापड़, पाला, पिल्लू, पीताम्बर, पीपल, पुआल, पुराण, पुरस्कार, पुल, पुलक, पुस्तकालय, पूर्व, पोत, पोल, पोषण, पाजामा, प्याज, प्रकोप, प्रयोग, प्रतिफल, प्रतिबन्ध, प्रत्यय, प्रदेश, प्रभाव, प्रलय, प्रसार, प्रातः, प्रारम्भ, पैसा, प्राण, पेट, पौधा, प्यार, पहरा, पानी।
फ- फर्क, फर्ज, फर्श, फल, फसाद, फाटक, फल, फूल, फेन, फेफड़ा, फेर, फेरा, फतिंगा।
ब- बण्डल, बन्दरगाह, बखान, बबूल, बचपन, बचाव, बड़प्पन, बरतन, बरताव, बल, बलात्कार, बहाव, बहिष्कार, बाँध, बाँस, बाग, बाज, बाजा, बाजार, बादाम, बेलन, बेला, बेसन, बोझ, बोल, बैर, बगीचा, बादल, बुढ़ापा, बटन, बिल, बुखार, बीज, बिछावन, बेंत, बदला।
भ- भण्डाफोड़, भँवर, भजन, भवन, भत्ता, भरण, भस्म, भाग्य, भाल, भाव, भाषण, भिनसार, भुजंग, भुलावा, भूकम्प, भेदभाव, भेड़िया, भोज, भोर, भरोसा।
म- मंच, मंजन, मण्डन, मजा, मटर, मसूर, मतलब, मद्य, मच्छर, मनसूबा, मनोवेग, मरहम, मरोड़, मवेशी, मलय, मलाल, महुआ, माघ, माजरा, मिजाज, मील, मुकदमा, मुरब्बा, मुकुट, मूँगा, मृग, मेघ, मेवा, मोक्ष, मोती, मोतीचूर, मोम, मोर, मोह, मौन, म्यान, मुरब्बा, मक्खन।
य- यन्त्र, यति (संन्यासी), यम, यश, यातायात।
र- रक्त, रबर, रमण, रहस्य, राग, रासो, रूपा, रेत, रोग, रोमांच, रिवाज, रूमाल ।
ल- लंगर, लक्ष्य, लगान, लगाव, लटकन, लाघव, लालच, लिहाज, लेख, लेप, लोप, लोभ, लेनदेन।
व- वजन, वज्र, वन, वनवास, वर, वसन्त, वार, विकल्प, विक्रय, विघटन, विमर्श, विलास, विष, विवाद, विसर्जन, विस्फोट, विहार, वैष्णव, व्यंजन, व्यय, व्याख्यान, व्याज, व्यास, व्यूह।
श- शंख, शक, शनि, शर, शव, शरबत, शहद, शाप, शिखर, शीर्ष, शील, शुक्र, शून्य, शोक, श्रम, श्र्वास।
स- संकट, संकेत, संकोच, संखिया, संगठन, संगम, संचार, संयोग, सन्दूक, संन्यास, सम्पर्क, सम्बन्ध, संविधान, सतू, सफर, समीर, सर, सरोवर, सहन, सहयोग, सहारा, साग, साधन, साया, सार, सिंगार, सिन्दूर, सियार, सिर, सिल्क, सींग, सुमन, सुराग, सूअर, सूत, सूत्र, सूना, सूद, सूप, सेतु, सेब, सेवन, सोच, सोन, सोना, सोफा, सोम, सोहर (गीत), सौभाग्य, सौरभ, स्तर, स्थल, स्पर्श, स्वरूप, स्वर्ग, सवर्ण, स्वाद।
ह- हंस, हक, हमला, हरण, हरिण, हल, हवाला, हार (माला), हाल (समाचार, दशा), हास्य, हित, हिल्लोल, हीरा, हेरफेर, हैजा, होंठ, होश, ह्रास।

स्त्रीलिंग शब्द (Feminine)

अ- अँगड़ाई, अँतड़ी, अकड़, अक्ल, अदालत, अनबन, अप्सरा, अफवाह, अपेक्षा, अपील, अहिंसा, अरहर, अवस्था।
आ- आँच, आँत, आग, आजीविका, आज्ञा, आत्मा, आत्महत्या, आदत, आन, आपदा, आफत, आमद, आय, आयु, आराधना,आवाज, आस्तीन, आह, आहट, आशिष, आँख।
इ, ई- इंच, इन्द्रिय, इच्छा, इजाजत, इज्जत, इमारत, इला, ईट, ईद, ईख, ईर्ष्या।
उ, ऊ- उड़ान, उथल-पुथल, उपासना, उपेक्षा, उमंग, उम्र, उर्दू (भाषा), उलझन, उषा, ऊब।
ए, ऐ- एकता, ऐंठ, ऐंठन, ऐनक।
ओ, औ- ओट, ओस, औलाद।
क- कक्षा, कटुता, कड़क, कतार, कथा, कदर, कन्या, कमर, कमाई, कमान, कमीज, करवट, करुणा, कसक, कसम, कसरत, कपास, कसौटी, कस्तूरी, काँगरेस, काश्त, करतूत, किस्मत, किशमिश, क़िस्त (ऋण चुकाने का भाग), कीमत, कील, कुंजी, कुटिया, कुशल(कुशलता), कुल्हाड़ी, कूक, कृपा, कैद, कोख, कोयल, क्रिया, क्रीड़ा, क्षमा।
ख- खटपट, खटास, खटिया, खड़क, खडांऊँ, खनक, खपत, खबर, खरीद, खींच, खरोंच, खाँड़, खाई, खाज, खाट, खातिर, खाद, खाल, खान (खनि), खिजाँ, खिदमत, खोच, खीझ, खीर, खील, खुदाई, खुरमा, खुशामद, खैरात, खोट, खोह।
ग- गंगा, गन्ध, गजल, गटपट, गठिया, गड़बड़, गणना, गति, गदा, गनीमत, गफलत, गरज, गर्दन, गरिमा, गर्द, गर्दिश, गाँठ, गाजर, गाज (बिजली), गागर, गाथा, गाद, गिटपिट, गिरफ्त, गिरह, गिलहरी, गीता, गीतिका, गुंजाइश, गुड़िया, गुड्डी, गुफा, गुरुता, गेरू, गुलेल, गूज, गैल, गैस, गोट, गोद, गोपिका, गौ।
घ- घटा, घटिका, घास, घिन, घुड़दौड़, घुड़साल, घूस, घृणा, घोषणा।
च- चमेली, चकई, चटक (चमक-दमक), चट्टान, चपत, चपला, चर्चा, चमक, चहक, चहल-पहल, चाँदी, चाँप, चाट, चादर, चारपाई, चाल, चाह, चाहत, चालढाल, चिकित्सा, चिट, चिमनी, चिलक, चिल्लाहट, चिढ, चिता, चिन्ता, चित्रकला, चिनक, चिनगारी, चिप्पी, चिलम, चील, चीख, चींटी, चीनी, चुटिया, चुड़ैल, चुनरी, चुनौती, चुहल, चुहिया, चूक, चें-चें, चेचक, चेतना, चेष्टा, चोंच, चोट, चौपड़, चौखट।
छ- छटा, छत, छमछम, छलाँग, छवि, छाँह, छाछ, छानबीन, छाप, छाया, छाल, छींक, छींट, छीछालेदर, छूट, छूत, छेनी, छुआछूत।
ज- जंग, जंजीर, जँभाई, जगह, जटा, जड़, जनता, जमात, जलवायु, जमानत, जमावट, जमीन, जलन, जय, जरा, जरूरत, जाँच, जाँघ, जागीर, जान, जायदाद, जिज्ञासा, जिद, जिरह, जिल्द, जिल्लत, जिह्ना, जीत, जीभ, जूँ, जूठन, जेब, जेवनार, जोंक, जोत, ज्वाला।
झ- झंकार, झंझट, झख, झिझक, झड़प, झनकार, झपक, झपट, झपास, झरझर, झकझक, झलमल, झाड़फूंक, झाड़(झाड़ने की क्रिया), झाड़, झाँझ, झाँझर, झाँप, झाड़न, झाल, (तितास), झालर, झिड़क, झील, झूम।
ट- टकसाल, टक्कर, टपक, टहल, टाँक, टाँग, टाँय-टाँय, टाप, टाल-मटोल, टिकिया, टिप-टिप, टिप्पणी, टीक, टीपटाप, टीमटाम, टीस, टूट, टेंट, टेंटे, टेक, टेर, टोह, टोक, ट्रेन।
ठ- ठण्डक, ठक-ठक, ठनक, ठमक, ठिठक, ठिलिया, ठूँठ, ठेक, ठोकर, ठेस।
ड- डग, डगर, डपट, डाक, डाट, डाँक, डाल, डींग, डीठ, डोर, डिबिया।
ढ- ढोलक।
त- तन्द्रा, तकरीर, तकदीर, तकरार, तड़क-भड़क, तड़प, तबीयत, तमत्रा, तरंग, तरकीब, तरफ, तरह, तरावट, तराश, तलब, तलवार, तलाश, तशरीफ, तह, तहजीब, तहसील, तान, ताक-झाँक, ताकत, तादाद, ताकीद, तातील, तारीफ, तालीम, तासीर, तिजारत, तीज, तुक, तुला, तोंद, तोबा, तोप, तोल, तोशक, त्योरी, त्रिया।
थ- थकान, थकावट, थरथर, थलिया, थाप, थाह।
द- दक्षिण, दगा, दतवन, दमक, दरखास्त, दरगाह, दरार, दलदल, दस्तक, दहाड़, दारू, दहशत, दावत, दिनचर्या, दिव्या, दीक्षा, दीठ, दीद, दीमक, दीवार, दुआ, दुकान, दुविधा, दुत्कार, दुम, दूरबीन, दुनिया, दुर्दशा, दूर, दूब, देखभाल, देखरेख, देन, देह।
ध- धड़क, धड़कन, धरपकड़, धमक, धरा, धरोहर, धाक, धातु, धाय, धार, धारणा, धुन्ध, धुन, धूम, धूप (सूर्य-प्रकाश), धूपछाँह, धौंक, धौंस, ध्वजा।
न- नकल, नस (स्त्रायु), नकाव, नकेल, नजर, नहर, नजाकत, नजात, नफरत, नफासत, नसीहत, नब्ज, नमाज, नाँद, नाक, निगाह, निद्रा, निराशा, निशा, निष्ठा, नींद, नीयत, नुमाइश, नोक, नोकझोंक, नौबत, नालिश, नेत्री।
प- पंचायत, पंगत, पकड़, पखावज, पछाड़, पतवार, पटपट, पतझड़, पताका, पत्तल, पनाह, परख, पसन्द, परवाह, परत, परात, परिक्रमा, परिषद, परीक्षा, पलटन, पहचान, पहुँच, पायल, पिपासा, पिस्तौल, पुलिस, पुश्त, पुड़िया, पुकार, पूछताछ, पूँछ, पेंसिल, पेंशन, पोशाक, पैदावार, पौध, प्रकिया, प्रतिज्ञा, प्रतिभा, प्रतीक्षा, प्रभा।
फ- फजीहत, फटकार, फटकन, फतह, फरियाद, फसल, फिक्र, फुरसत, फुलिया, फुहार, फूंक, फूट, फीस, फौज।
ब- बन्दूक, बकवास, बयार, बगल, बचत, बदबू, बदौलत, बधाई, बनावट, बरात, बर्दाश्त, बर्फ, बला, बहार, बाँह, बातचीत, बाबत, बरसात, बुलाहट, बूँद, बूझ, बेर (दफा या बार), बैठक, बोतल, बोलचाल, बौखलाहट, बौछार।
भ-भगदड़, भड़क, भनक, भभक, भरमार, भभूत, भाँग, भाप, भार्या, भिक्षा, भीख, भीड़, भुजा, भूख, भेंट, भेड़, भैंस, भौंह।
म- मंजिल, मंशा, मचक, मचान, मजाल, मखमल, मटक, मणि, मसनद, ममता, मरम्मत, मर्यादा, मलमल, मशाल, मज्जा, मशीन, मस्जिद, महक, मसल, महफिल, महिमा, माँग, माता, मात्रा, माया, माप, माला, मिठास, मिर्च, मिलावट, मीनार, मुद्रा, मुराद, मुलाकात, मुसकान, मुसीबत, मुस्कराहट, मुहब्बत, मुहर, मूँग, मूँछ, मूर्खता, मेखला, मेहनत, मैना, मैल, मौज, मौत, मृत्यु।
य- यमुना, याचना, यादगार, यातना, यात्रा, यामा, योजना।
र- रक्षा, रचना, रात, राह, रेखा, रंगत, रकम, रंग, रगड़, रफ्तार, रस्म, राख, रामायण, राय, राहत, रियासत, रिमझिम, रीढ़, रुकावट, रूह, रेणु, रेत (बालू), रेल, रोक, रोकड़, रोर, रौनक, रोकटोक,रोटी।
ल- लौंग, लड़ाई, लता, ललकार, लात, लहर, लार, लालटेन, लंका, लकीर, लगन, लगाम, लटक, लताड़, लचर, लज्जा, लट, लपक, ललक, ललकार, लहर, लात, लाज, लालमिर्च, लाश, लीक, लोटपोट, लू।
व- वकालत, वायु, विद्या, विनय, वसीयत, विजय, विदाई, विधवा, व्यथा, विदुषी।
श- शंका, शक्कर, शराब, शान, शाम, शरण, शर्त, शतरंज, शक्ल, शराफत, शबनम, शान, शाखा, शिखा, शिकायत, श्रद्धा। स- सरसों, संस्कृत, संस्था, सजावट, सड़क, समझ, सभ्यता, समस्या, सरकार, ससुराल, साँझ, साँस, सिगरेट, सीमा, सुधा, सुविधा, सुबह, सूझ, सेना, सैर, साजिश, सनक, सन्तान (औलाद), सम्पदा, संसद।
ह-हजामत, हड़ताल, हत्या, हवा, हलचल, हाय, हाट, हालत, हिंसा, हिचक, हिम्मत, हींग, हरकत, हड़प, हद, हकीकत, हिफाजत, हैसियत, हिम्मत।
पुलिंग शब्दों की सूची और उनका वाक्य-प्रयोग :
शब्दवाक्यशब्दवाक्य
प्राण-उसके प्राण उड़ गये।घी-घी महँगा है।
अपराध-उनका अपराध क्षमा के योग्य है।अकाल-राजस्थान में भीषण अकाल पड़ा है।
आईना-आईना टूट गया।आयोजन-पूजा का आयोजन हो रहा है।
अम्बार-किताबों का अम्बार लगा हुआ है।आँसू-उनके आँसू निकल पड़े।
इत्र-यह गुलाब का इत्र है।ईंधन-ईंधन जल गया।
कंबल-कंबल मोटा है।कफन-कफन छोटा है।
कवच-यह लोहे का कवच है।कीचड़-कीचड़ सुख गया है।
कुआँ-कुआँ गहरा है।कुहासा-कुहासा छाया है।
गिरगिट-गिरगिट रंग बदलता है।गुनाह-उनका गुनाह क्या है ?
खलिहान-यह राम का खलिहान है।घाव-घाव पक गया है।
चाबुक-उसका चाबुक गिर पड़ा।चुनाव-चुनाव आ गया।
छप्पर-वह फूस का छप्पर है।जहाज-जहाज डूब गया।
जख्म-जख्म हरा हो गया।जुलूस-जुलूस लंबा है।
जेल-यह पटना का जेल है।जौ-जौ खाने में अच्छा नहीं लगता।
टिकट-यह रेल का टिकट है।तकिया-यह छोटू का तकिया है।
तीर-हाथ से तीर छूट गया।तौलिया-यह डी० सी० एम० का तौलिया है।
दंगा-दंगा अच्छा नहीं होता है।दाग-पान का दाग नहीं छूटता।
नकद-आपके पास नकद कितना है ?नीड़-मेरा नीड़ उजड़ गया।
नीलाम-जमीन को नीलाम होना है।पतंग-पतंग उड़ रहा है।
पहिया-पहिया टूट गया।फर्ज-मेरे प्रति उनका क्या फर्ज है ?
बोझ-बोझ हल्का है।भोर-भोर हो गया।
मोती-मोती चमक रहा है।मोम-मोम पिघल रहा है।
रूमाल-रूमाल फट गया।शोक-उन्हें नाचने का शोक है।
सींग-गाय को दो सींग होता है।हार-यह हार महँगा है।
होश-उनके होश उड़ गये।पानी-पानी गंदा है।
दही-दही खट्टा है।बचपन-बचपन बड़ा सुंदर होता है।
घर-घर सुंदर बना है।पर्वत-पर्वत ऊँचा है।
उमंग-यह अच्छी उमंग है।क्रोध-क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है।
गीत-वह गीत अच्छा है।वृक्ष-वृक्ष सूख गया।
स्त्रीलिंग शब्दों की सूची और उनका वाक्य-प्रयोग :
शब्दवाक्यशब्दवाक्य
आदत-मुझे पान खाने की आदत है।आय-मेरी आय थोड़ी है।
आँख-उनकी आँख बड़ी-बड़ी है।आग-आग लग गयी।
इच्छा-मेरी इच्छा घूमने की है।ईट-ईट पकी नहीं है।
ईष्र्या-दूसरे की संपत्ति से ईष्र्या नहीं करनी चाहिए।उम्र-तुम्हारी उम्र लम्बी है।
ऊब-नीरस बातों से ऊब होती है।कब्र-कब्र खोदी गयी।
कमर-मेरी तो कमर टूट गयी।कसम-मुझे उनकी कसम है।
कलम-कलम टूट गयी।खटिया-उसने मेरी खटिया खड़ी कर दी।
खोज-खोये हुए बच्चे की खोज जारी है।खबर-उनकी मृत्यु की खबर गलत निकली।
गर्दन-मेरी गर्दन फँसी है।घूस-घूस बुरी चीज है।
घात-बिल्ली चूहे की घात में है।चमक-उनके चेहरे की चमक गायब हो गयी।
चिढ-राम की चिढ महँगी पड़ी।चाल-घोड़े की चाल अच्छी है।
चील-आकाश में चील उड़ रही है।छत-छत टूट गयी।
जाँच-जाँच हो रही है।जीभ-जीभ कट गयी।
जूँ-मेरे बाल में जूँ रेंगती है।झंझट-झंझट किसी से नहीं करनी चाहिए।
टाँग-मेरी टाँग टूट गयी।ठेस-ठेस लग गयी।
किताब-किताब पुरानी है।तबीयत-उसकी तबीयत ठीक नहीं है।
थकावट-बिस्तर पर जाते ही थकावट दूर हो गयी।दीवार-दीवार गिर गयी।
देह-उनकी देह मोटी है।धूप-धूप निकल आयी है।
नकल-मेरी नकल मत करो।नहर-नहर गाँव से होकर जाती है।
नब्ज-मैं उसकी नब्ज पहचानता हूँ।प्रतिज्ञा-मेरी प्रतिज्ञा अटल है।
फटकार-उसने फटकार लगायी।बंदूक-यह किसकी बंदूक है ?
बर्फ-बर्फ गिर रही है।बालू-बालू पीली है।
बूँद-पानी की बूँदे गिरी है।भीख-भीख देनी चाहिए।
भीड़-वहाँ भीड़ लगी थी।भूख-मुझे भूख लगी है।
मूँछ-उनकी मूँछे नुकीली हैं।यात्रा-यात्रा अच्छी रही।
लाश-लाश सड़ गयी।लीक-यह लीक कैसी है।
लू-लू चल रही है।शराब-शराब महँगी है।
विजय-उसकी विजय हुई।सजा-उसको सजा हो गयी है।
सड़क-सड़क चौड़ी है।साँझ-साँझ घिर आयी है।
स्त्रीलिंग /पुलिंग शब्दों की सूची और उनका वाक्य-प्रयोग :
शब्दवाक्यशब्दवाक्य
प्राण (पु०)-प्राण उड़ गए।मोती (पु०)-मोती चमकता है।
घी (पु०)-घी उजला है।छत (स्त्री०)-छत गिर गई।
मूँछ (स्त्री०)-पिताजी की मूँछ पक रही है।दाल (स्त्री०)-दाल अच्छी बनी है।
खेत (पु०)-मेरा खेत हरा-भरा है।पीठ (स्त्री०)-मेरी पीठ में दर्द है।
चादर (स्त्री)-चादर फट गई है।होश (पु०)-उसके होश उड़ गए।
धूप (स्त्री /पु०)-धूप कड़ी है।/यज्ञ में धूप जल रहा है।पहिया (पु०)-बैलगाड़ी में दो पहिये होते है।
बुढ़ापा (पु०)-देखते-देखते बुढ़ापा आ गया।दीमक (स्त्री०)-किताबों में दीमक लग गई है।
दर्शन (पु०)-आपके दर्शन हुए, अहोभाग्य।जूँ (स्त्री०)-मूर्ख के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।
खीर (स्त्री०)-खीर अच्छी बनी है।आग (स्त्री०)-आग धधक उठी है।
अफवाह (स्त्री०)-अफवाह फैल गई कि उसकी हत्या कर दी गई है।कीचड़ (पु०)-गली में कीचड़ फैल गया है।
अफीम (स्त्री०)-अफीम जहरीली होती है।अनबन (स्त्री०)-दोनों भाइयों में अनबन चल रही है।
आँख (स्त्री०)-मेरी आँख में दर्द हो रहा है।मोती (पु०)-मोती चमकीला होता है।
अरहर (स्त्री०)-जनवरी में अरहर फूलने लगती है।घूँट (पु०)-मैं खून का घूँट पीकर रह गया।
चोंच (स्त्री०)-इस पंक्षी की चोंच लंबी है।भीड़ (स्त्री०)-भीड़ एकत्र हो गई।
नाक (स्त्री०)-भरी सभा में सौदागर की नाक कट गई।बाढ़ (स्त्री०)-पिछले साल भीषण बाढ़ आई थी।
हार (स्त्री० /पु०)-रावण की हार हो गई /रानी का हार खो गया।प्यास (स्त्री०)-कौवे को प्यास लगी थी।
लगाम (स्त्री०)-घोड़े की लगाम हाथ में थी।नींद (स्त्री०)-खाने के बाद मुझे नींद लगने लगी।
आयु (स्त्री०)-भगवान करे, आपकी आयु लंबी हो।शपथ (स्त्री०)-मैंने शपथ खाई कि उसे हराकर ही रहूँगा।
ऋतु (स्त्री०)-वर्षा ऋतु आ गई।लालच (पु०)-ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए।
सरसों (स्त्री०)-फागुन चढ़ते ही सरसों कटने लगती है।चरित्र (पु०)-चरित्र चला जाता है, तो सब कुछ चला जाता है।
खोज (स्त्री०)-हनुमान ने सीता की खोज की।आदत (स्त्री०)-उसे तम्बाकू खाने की आदत पड़ गई है।
खटिया (स्त्री०)-मेरी खटिया पुरानी हो गई है।नेत्र (पु०)-मेरा नेत्र लाल है।
चाँदी (स्त्री०)-सोनार के यहाँ से चाँदी चोरी हो गई।कचनार (स्त्री०)-ग्रीष्म ऋतु में भीषण ताप में भी कचनार हरी-भरी रहती है।
साँस (स्त्री०)-साँप को देखकर मेरी साँस फूल गई।ओस (स्त्री०)-जाड़े में ओस पड़ती है।
भूख (स्त्री०)-मुझे जोरों से भूख लगी है।उल्लास (पु०)-हारने से सारा उल्लास ही समाप्त हो गया।
चश्मा (पु०)-चश्मा हमारी आँखों की रक्षा करता है।सरकार (स्त्री०)-केंद्र की सरकार राजनीतिक दलों के सहयोग से बनी है।

पुलिंग से स्त्रीलिंग बनाने के नियम और प्रत्यय

हिन्दी-स्त्रीप्रत्यय

(1) अकारान्त तथा आकारान्त पुलिंग शब्दों को ईकारान्त कर देने से वे स्त्रीलिंग हो जाते है। जैसे-

आकारान्त शब्द

लड़का- लड़की
गूँगा- गूँगी
देव- देवी 
नर- नारी 
गधा- गधी 
नाला- नाली 
मोटा- मोटी 
बन्दर- बन्दरी

(2) 'आ' या 'वा' प्रत्ययान्त पुलिंग शब्दों में 'आ' या 'वा' की जगह इया लगाने से वे स्त्रीलिंग बनते है। जैसे-
कुत्ता- कुतिया
बूढा- बुढ़िया
बाछा- बछिया
(3) व्यवसायबोधक, जातिबोधक तथा उपनामवाचक शब्दों के अन्तिम स्वर का लोप कर उनमें कहीं इन और कहीं आइन प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिंग बनाया जाता है जैसे-
माली- मालिनी
धोबी- धोबिनी
तेली- तेलिनी
बाघ- बाघिनी
बनिया- बनियाइन
(4) कुछ उपनामवाची शब्द ऐसे भी है, जिनमे आनी प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिंग बनाया जाता है। जैसे-
ठाकुर- ठाकुरानी
पण्डित-पण्डितानी
चौधरी- चौधरानी
देवर- देवरानी
जेठ- जेठरानी
मेहतर- मेहतरानी
सेठ- सेठरानी
(4) जाती या भाव बतानेवाली संज्ञाओं का पुलिंग से स्त्रीलिंग करने में यदि शब्द का अन्य स्वर दीर्घ है, तो उसे ह्स्व करते हुए नी प्रत्यय का भी प्रयोग होता है। जैसे-
स्यार- स्यारनी
हिन्दू- हिन्दुनी
ऊँट- ऊँटनी
हाथी- हथिनी
(5) कुछ शब्द स्वतन्त्ररूप से स्त्री-पुरुष के जोड़े होते है। ये स्वतन्त्ररूप से स्त्रीलिंग या पुलिंग शब्द होते है। जैसे-
माँ- बाप 
मर्द- औरत 
पुत्र- कन्या 
राजा- रानी 
भाई- बहन 
पुरुष- स्त्री 
गाय- बैल 
वर- दामाद 
साहब - मेम 
माता- पिता 
बेटा- पुतोहू

संस्कृत स्त्रीप्रत्यय

(6) संस्कृत के 'वान्' और 'मान्' प्रत्ययान्त विशेषण शब्दों में 'वान्' तथा 'मान्' को क्रमशः वती और मती कर देने से स्त्रीलिंग बन जाता है। जैसे-
बुद्धिमान्- बुद्धिमती 
पुत्रवान्- पुत्रवती 
श्रीमान्- श्रीमती 
भाग्यवान्- भाग्यवती 
आयुष्मान्- आयुष्मती 
भगवान्- भगवती 
धनवान्- धनवती

(7) संस्कृत के बहुत-से अकारान्त विशेषण शब्दों के अन्त में आ लगा देने से स्त्रीलिंग हो जाते है। जैसे-
तनुज- तनुजा
चंचल- चंचलता
आत्मज- आत्मजा
सुत- सुता
प्रिय- प्रिया
पूज्य- पूज्या
श्याम- श्यामा
(8) जिन पुलिंग शब्दों के अन्त में 'अक' होता है, उनमें 'अक' के स्थान पर इका कर देने से वे शब्द स्त्रीलिंग बन जाते है। जैसे-
सेवक- सेविका
पालक- पालिका
बालक- बालिका
भक्षक- भक्षिकानायक
पाठक- पाठिका
(9) संस्कृत की अकारान्त संज्ञाएँ पुलिंग रूप में आकारान्त कर देने और स्त्रीलिंग रूप में ईकारान्त कर देने से पुलिंग-स्त्रीलिंग होती है। जैसे-

शब्दपुंलिंग शब्दस्त्रीलिंग शब्द
धातृधाताधात्री
दातृदातादात्री
नेतृनेतानेत्री

                                  उपसर्ग


उपसर्ग की परिभाषा (Prefixes)

उपसर्ग उस शब्दांश या अव्यय को कहते है, जो किसी शब्द के पहले आकर उसका विशेष अर्थ प्रकट करता है।
दूसरे शब्दों में - जो शब्दांश शब्दों के आदि में जुड़ कर उनके अर्थ में कुछ विशेषता लाते है, वे उपसर्ग कहलाते है। 
जैसे- प्रसिद्ध, अभिमान, विनाश, उपकार।
इनमे कमशः 'प्र', 'अभि', 'वि' और 'उप' उपसर्ग है।

यह दो शब्दों (उप+ सर्ग) के योग से बनता है। 'उप' का अर्थ 'समीप', 'निकट' या 'पास में' है। 'सर्ग' का अर्थ है सृष्टि करना। 'उपसर्ग' का अर्थ है पास में बैठाकर दूसरा नया अर्थवाला शब्द बनाना। 'हार' के पहले 'प्र' उपसर्ग लगा दिया गया, तो एक नया शब्द 'प्रहार' बन गया, जिसका नया अर्थ हुआ 'मारना' । उपसर्गो का स्वतन्त्र अस्तित्व न होते हुए भी वे अन्य शब्दों के साथ मिलाकर उनके एक विशेष अर्थ का बोध कराते हैं।
उपसर्ग शब्द के पहले आते है। जैसे -'अन' उपसर्ग 'बन' शब्द के पहले रख देने से एक शब्द 'अनबन 'बनता है, जिसका विशेष अर्थ 'मनमुटाव' है। कुछ उपसर्गो के योग से शब्दों के मूल अर्थ में परिवर्तन नहीं होता, बल्कि तेजी आती है। जैसे- 'भ्रमण' शब्द के पहले 'परि' उपसर्ग लगाने से अर्थ में अन्तर न होकर तेजी आयी। कभी-कभी उपसर्ग के प्रयोग से शब्द का बिलकुल उल्टा अर्थ निकलता है।
उपसर्ग के प्रयोग से शब्दों को तीन स्थितियाँ होती है - (i)शब्द के अर्थ में एक नई विशेषता आती है;
(ii)शब्द के अर्थ में प्रतिकूलता उत्पत्र होती है,
(iii) शब्द के अर्थ में कोई विशेष अन्तर नही आता।

उपसर्ग की संख्या

हिंदी में प्रचलित उपसर्गो को निम्नलिखित भागो में विभाजित किया जा सकता है-
(1) संस्कृत के उपसर्ग
(2)हिंदी के उपसर्ग
(3) उर्दू के उपसर्ग
(4) अंग्रेजी के उपसर्ग
(5) उपसर्ग के समान प्रयुक्त होने वाले संस्कृत के अव्यय
(1) संस्कृत के उपसर्ग-
उपसर्गअर्थउपसर्ग से बने शब्द
अतिअधिक, ऊपर, उस पारअतिकाल, अत्याचार, अतिकर्मण,अतिरिक्त, अतिशय, अत्यन्त, अत्युक्ति, अतिक्रमण, इत्यादि ।
अधिऊपर, श्रेष्ठअधिकरण, अधिकार, अधिराज, अध्यात्म, अध्यक्ष, अधिपति इत्यादि।
अपबुरा, अभाव, हीनता, विरुद्धअपकार, अपमान, अपशब्द, अपराध, अपहरण, अपकीर्ति, अपप्रयोग, अपव्यय, अपवाद इत्यादि।
अभावअज्ञान, अधर्म, अस्वीकार इत्यादि।
अनुपीछे, समानता, क्रम, पश्र्चातअनुशासन, अनुज, अनुपात, अनुवाद, अनुचर, अनुकरण, अनुरूप, अनुस्वार, अनुशीलन इत्यादि।
ओर, सीमा, समेत, कमी, विपरीतआकाश, आदान, आजीवन, आगमन, आरम्भ, आचरण, आमुख, आकर्षण, आरोहण इत्यादि।
अवहीनता, अनादर, पतनअवगत, अवलोकन, अवनत, अवस्था, अवसान, अवज्ञा, अवरोहण, अवतार, अवनति, अवशेष, इत्यादि।
उपनिकटता, सदृश, गौण, सहायक, हीनताउपकार, उपकूल, उपनिवेश, उपदेश, उपस्थिति, उपवन, उपनाम, उपासना, उपभेद इत्यादि।
निभीतर, नीचे, अतिरिक्तनिदर्शन, निपात, नियुक्त, निवास, निरूपण, निवारण, निम्र, निषेध, निरोध, निदान, निबन्ध इत्यादि।
निर्बाहर, निषेध, रहितनिर्वास, निराकरण, निर्भय, निरपराध, निर्वाह, निर्दोष, निर्जीव, नीरोग, निर्मल इत्यादि।
पराउलटा, अनादर, नाशपराजय, पराक्रम, पराभव, परामर्श, पराभूत इत्यादि।
परिआसपास, चारों ओर, पूर्णपरिक्रमा, परिजन, परिणाम, परिधि, परिपूर्ण इत्यादि।
प्रअधिक, आगे, ऊपर, यशप्रकाश, प्रख्यात, प्रचार, प्रबल, प्रभु, प्रयोग, प्रगति, प्रसार, प्रयास इत्यादि।
प्रतिविरोध, बराबरी, प्रत्येक, परिवर्तनप्रतिक्षण, प्रतिनिधि, प्रतिकार, प्रत्येक, प्रतिदान, प्रतिकूल, प्रत्यक्ष इत्यादि।
विभित्रता, हीनता, असमानता, विशेषताविकास, विज्ञान, विदेश, विधवा, विवाद, विशेष, विस्मरण, विराम, वियोग, विभाग, विकार, विमुख, विनय, विनाश इत्यादि।
सम्पूर्णता, संयोगसंकल्प, संग्रह, सन्तोष, संन्यास, संयोग, संस्कार, संरक्षण, संहार, सम्मेलन, संस्कृत, सम्मुख, संग्राम इत्यादि।
सुसुखी, अच्छा भाव, सहज, सुन्दरसुकृत, सुगम, सुलभ, सुदूर, स्वागत, सुयश, सुभाषित, सुवास, सुजन इत्यादि।
अधआधे के अर्थ मेंअधजला, अधपका, अधखिला, अधमरा, अधसेरा इत्यादि।
अ-अननिषेध के अर्थ मेंअमोल, अपढ़, अजान, अथाह, अलग, अनमोल, अनजान इत्यादि।
उनएक कमउत्रीस, उनतीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर इत्यादि।
हीनता, निषेधऔगुन, औघट, औसर, औढर इत्यादि।
दुबुरा, हीनदुकाल, दुबला इत्यादि।
निनिषेध, अभाव, विशेषनिकम्मा, निखरा, निडर, निहत्था, निगोड़ा इत्यादि।
बिननिषेधबिनजाना, बिनब्याहा, बिनबोया, बिनदेखा, बिनखाया, बिनचखा, बिनकाम इत्यादि।
भरपूरा, ठीकभरपेट, भरसक, भरपूर, भरदिन इत्यादि।
कु-कबुराई, हीनताकुखेत, कुपात्र, कुकाठ, कपूत, कुढंग इत्यादि।
(2)हिंदी के उपसर्ग-
उपसर्गअर्थउपसर्ग से बने शब्द
अननिषेध अर्थ मेंअनमोल, अलग, अनजान, अनकहा, अनदेखा इत्यादि।
अध्आधे अर्थ मेंअधजला, अधखिला, अधपका, अधकचरा, अधकच्चा, अधमरा इत्यादि।
उनएक कमउनतीस, उनचास, उनसठ, इत्यादि।
भरपूरा ,ठीकभरपेट, भरपूर, भरदिन इत्यादि।
दुबुरा, हीन, विशेषदुबला, दुर्जन, दुर्बल, दुकाल इत्यादि।
निआभाव, विशेषनिगोड़ा, निडर, निकम्मा इत्यादि।
अभाव, निषेधअछूता, अथाह, अटल
बुरा, हीनकपूत, कचोट
कुबुराकुचाल, कुचैला, कुचक्र
अवहीन, निषेधऔगुन, औघर, औसर, औसान
भरपूराभरपेट, भरपूर, भरसक, भरमार
सुअच्छासुडौल, सुजान, सुघड़, सुफल
परदूसरा, बाद कापरलोक, परोपकार, परसर्ग, परहित
बिनबिना, निषेधबिनब्याहा, बिनबादल, बिनपाए, बिनजाने
(3)उर्दू के उपसर्ग-
उपसर्गअर्थउपसर्ग से बने शब्द
लाबिनालाचार, लाजवाब, लापरवाह, लापता इत्यादि।
बदबुराबदसूरत, बदनाम, बददिमाग, बदमाश, बदकिस्मत इत्यादि।
बेबिनाबेकाम, बेअसर, बेरहम, बेईमान, बेरहम इत्यादि।
कमथोड़ा, हीनकमसिन, कामखयाल, कमज़ोर, कमदिमाग, कमजात, इत्यादि।
ग़ैरके बिना, निषेधगैरकानूनी, गैरजरूरी, ग़ैर हाज़िर, गैर सरकारी, इत्यादि।
खुशश्रेष्ठता के अर्थ मेंखुशनुमा, खुशगवार, खुशमिज़ाज, खुशबू, खुशदिल, खुशहाल इत्यादि।
नाअभावनाराज, नालायक, नादनामुमकिन, नादान, नापसन्द, नादान इत्यादि।
अलनिश्र्चितअलबत्ता, अलगरज आदि।
बरऊपर, पर, बाहरबरखास्त, बरदाश्त, बरवक्त इत्यादि।
बिलके साथबिलआखिर, बिलकुल, बिलवजह
हमबराबर, समानहमउम्र, हमदर्दी, हमपेशा इत्यादि।
दरमेंदरअसल, दरहक़ीक़त
फिल/फीमें प्रतिफिलहाल, फीआदमी
और, अनुसारबनाम, बदौलत, बदस्तूर, बगैर
बासहितबाकायदा, बाइज्जत, बाअदब, बामौक़ा
सरमुख्यसरताज, सरदार, सरपंच, सरकार
बिलाबिनाबिलावजह, बिलाशक
हरप्रत्येकहरदिन हरसाल हरएक हरबार
(4) अंग्रेजी के उपसर्ग -
उपसर्गअर्थउपसर्ग से बने शब्द
सबअधीन, नीचेसब-जज, सब-कमेटी, सब-इंस्पेक्टर
डिप्टीसहायकडिप्टी-कलेक्टर, डिप्टी-रजिस्ट्रार, डिप्टी-मिनिस्टर
वाइससहायकवाइसराय, वाइस-चांसलर, वाइस-पप्रेसीडेंट
जनरलप्रधानजनरल मैनेजर, जनरल सेक्रेटरी
चीफप्रमुखचीफ-मिनिस्टर, चीफ-इंजीनियर, चीफ-सेक्रेटरी
हेडमुख्यहेडमास्टर, हेड क्लर्क
(5) उपसर्ग के समान प्रयुक्त होने वाले संस्कृत के अव्यय -

उपसर्गअर्थउपसर्ग से बने शब्द
अधःनीचेअधःपतन, अधोगति, अधोमुखी, अधोलिखित
अंतःभीतरीअंतःकरण, अंतःपुर, अंतर्मन, अंतर्देशीय
अभावअशोक, अकाल, अनीति
चिरबहुत देरचिरंजीवी, चिरकुमार, चिरकाल, चिरायु
पुनरफिरपुनर्जन्म, पुनर्लेखन, पुनर्जीवन
बहिरबाहरबहिर्गमन, बहिर्जगत
सतसच्चासज्जन, सत्कर्म, सदाचार, सत्कार्य
पुरापुरातनपुरातत्व, पुरावृत्त
समसमानसमकालीन, समदर्शी, समकोण, समकालिक
सहसाथसहकार, सहपाठी, सहयोगी, सहचर

                       








17 टिप्‍पणियां:

  1. Madhur swar me koyal ka kya jawab sentence me konsi sabd shakti h

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  2. Divya or sajno yaad rakhe desh pe sankat chahiye waak sansadhan kare

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  3. कृपया आप बताइए कि English सही केसे पढ़ी जाती हैं यानि reading केवल reading सही केसे करें

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  6. मयंक चाय लाओ में क्रिया का कोनसा रूप है

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  7. अयोध्या के भूपति दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री रामचंद्रजी ने रावण की नाभि में मृत्यु का भेद ज्ञात हो जाने पर झटपट रथ पर चढ़कर अपने प्रचण्ड बाणों से उसकी नाभि पर प्रहार किया और रावण के प्राण पखेरू उड़ गए। ऋषियों का कहना है कि मनुष्य को कभी घमण्ड नही करना चाहिए अर्थार्त रावण जैसी प्रक्रति नही रखनी चाहिए ।

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